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विसुद्धिमग्ग चित्तप्पवत्तिआकारं तस्मा सल्लक्खयं बुधो। समतं विरियस्सेव योजयेथ पुनप्पुनं॥ ईसकं पि लयं यन्तं परगण्हेथेव मानसं। अच्चारद्धं निसेधेत्वा सममेव पवत्तये ॥
निमित्ताभिमुखपटिपादनं रेणुम्हि उप्पलदले सुत्ते नावाय नाळिया। यथा मधुकरादीनं पवत्ति सम्मवण्णिता॥ लीन-उद्धतभावेहि मोचयित्वान सब्बसो।
एवं निमित्ताभिमुखं मानसं पटिपादये ॥ ति॥ १९. तत्रायं अत्थदीपना-यथा हि अछेको मधुकरो असुकस्मि रुक्खे पुर्फ पुप्फितं ति जत्वा तिक्खेन वेगेन पक्खन्दो तं अतिकमित्वा पटिनिवत्तेन्तो खीणे रेणुम्हि सम्पापुणाति। अपरो अछेको मन्देन जवेन पक्खन्दो खीणे येव सम्पापुणाति। छेको पन समेन जवेन पक्खन्दो सुखेन पुप्फरासिं सम्पत्वा यावदिच्छकं रेणुं आदाय मधुं सम्पादेत्वा मधुरसं अनुभवति।
यथा च सल्लकत्तअन्तेवासिकेसु उदकथालगते उप्पलपत्ते सत्थकम्मं सिक्खन्तेसु एको अछेको वेगेन सत्थं पातेन्तो उप्पलपत्तं द्विधा वा छिन्दति, उदके वा पवेसेति । अपरो अथेको छिजनपवेसनभया सत्थकेन फुसितुं पि न विसहति। छेको पन समेन पयोगेन तत्थ सत्थप्पहारं दस्सेत्वा परियोदातसिप्पो हुत्वा तथारूपेसु ठानेसु कम्मं कत्वा लाभं लभति।
अल्पमात्र भी आलस्य में पड़े हुए मन को पकड़ कर रखे, वीर्य के अतिरेक अत्यारम्भ को रोककर सन्तुलन बनाये रखे।। निमित्तामिमुख प्रवृत्ति का प्रतिपादन
पराग, कमल, दल, सूत, नाव, व नाड़ी (फोंफी) में जैसे मधुमक्खी आदि की प्रवृत्ति वर्णित है, वैसे ही आलस्य औद्धत्य भावों से मन को सर्वथा छुड़ा कर निमित्त की ओर लगाना चाहिये।।
१९. वहाँ =उन "रेणुम्हि" आदि दोनों गाथाओं के अर्थ की व्याख्या इस प्रकार है-जिस प्रकार कोई अनाड़ी (अकुशल) मधुमक्खी 'अमुक वृक्ष पर फूल लगे हैं' ऐसा जानकर तीव्र वेग से उड़ते हुए उस अभीष्ट फूल को लांघ कर आगे चली जाती है, फिर पीछे लौटने पर पराग झर चुकने पर ही उस अभीष्ट पुष्प तक पहुंच पाती है, दूसरी अनाड़ी मधुमक्खी भी मन्द गति से उड़ते हुए पराग झर जाने पर ही पहुंच पाती है, किन्तु चतुर (-कुशल) समान गति से उड़ते हुए सुखपूर्वक फूलों के पास पहुँच कर इच्छानुसार पराग लेकर, मधु बनाकर, मधु के स्वाद का आनन्द लेती है। (१)
और जैसे जल भरी थाली में रखे हुए कमल के पत्ते पर शस्त्रकर्म (चीर-फाड़ करना) सीखने वाले शल्यक (-शल्यचिकित्सक) के शिष्यों में से कोई अनाड़ी शिष्य तेजी के साथ शस्त्र चलाकर या तो कमल के पत्ते को दो भागों में काट डालता है, या फिर उसे जल में डुबा देता है, दूसरा अनाड़ी इस डर से कि कहीं कट न जाय या जल में डूब न जाय, शस्त्र को हाथ लगाने का भी साहस नहीं करता; पर चतुर शिष्य उस स्थिति में सन्तुलित प्रयास द्वारा शस्त्र-प्रहार का प्रदर्शन कर, शिल्प ( शल्यक्रिया) में प्रवीणता दिखाता हुआ तदनुरूप परिस्थितियों में कार्य कर पुरस्कार . पाता है। (२)