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४. पथवीकसिणनिद्देस
१८७ पटिपन्नं चित्तं होति, तदास्स पग्गहनिग्गहसम्पहंसनेसु न ब्यापारं आपज्जति, सारथि विय समप्पवत्तेसु अस्सेसु। एवं "यस्मि समये चित्तं अज्झुपेक्खितब् तस्मि समये चित्तं अज्झुपेक्खति"।
(८) असमाहितपुग्गलपरिवजनता नाम नेक्खम्मपटिपदं अनारूळ्हपुब्बानं अनेककिच्चपसुतानं विविखत्तहदयानं पुग्गलानं आरका परिच्चागो।
(९) समाहितपुग्गलसेवनता नाम नेक्खम्मपटिपदं पटिपन्नानं समाधिलाभीनं पुग्गलानं कालेन कालं उपसङ्कमनं।
(१०) तदधिमुत्तता नाम समाधिअधिमुत्तता, समाधिगरु-समाधिनिनसमाधिपोण-समाधिपब्भारता ति अत्थो।
एवमेतं दसविधं अप्पनाकोसल्लं सम्पादेतब्बं ॥ १८. एवं हि सम्पादयतो अप्पनाकोसलं इमं।
पटिलद्धे निमित्तस्मि अप्पना सम्पवत्तति॥ एवं हि पटिपन्नस्स सचे सा नप्पवत्तति। तथा पि न जहे योगं वायमेथेव पण्डितो॥
हित्वा हि सम्मावायामं विसेसं नाम मानवो। __ अधिगच्छे परित्तं पि ठानमेतं न विज्जति॥ आस्वादरहित, आलम्बन में समान रूप से प्रवृत्त, शान्ति के मार्ग पर चलने वाला होता है, तब समान चाल से चलने वाले घोड़े के विषय में सारथि के समान, इस भिक्षु को प्रग्रह, निग्रह, प्रफुल्लित करने आदि के व्यापार.की आवश्यकता नहीं रहती। यह हुआ-"जिस समय चित्त की उपेक्षा करनी चाहिये, उस समय चित्त की उपेक्षा करता है" इस वाक्य का व्याख्यान।
(८) असमाहितपुग्गलपरिवजनता का तात्पर्य है-जिन्होंने नैष्काम्यमार्ग पर चलना प्रारम्भ नहीं किया हो, जो अनेक कार्यों में लगे रहने वाले एवं विक्षिप्त चित्त वाले व्यक्ति हों, उनका दूर से ही परित्याग।
(९) समाहितपुग्गलसेवनता का तात्पर्य है-नैष्काम्य-मार्ग पर चलने वाले एवं समाधिप्राप्त सज्जनों के पास समय-समय पर जाते रहना।
(१०) तदधिमुत्तता का तात्पर्य है समाधि के प्रति अधिमुक्ति रखना, समाधि के प्रति गौरव रखना....प्रवृत्ति रखना, उसके प्रति रुझान एवं झुकाव रखना।
ऐसे दस प्रकार से अर्पणा-कौशल का सम्पादन करना चाहिये।।
१८. इस प्रकार इस अर्पणाकौशल का सम्पादन करते हुए, प्राप्त निमित्त में अर्पणा उत्पन्न होती है।
इस मार्ग पर चलने वाले को भी यदि वह अर्पणाकौशल उत्पन्न न हो, तब भी पण्डित (बुद्धिमान) को चाहिये कि वह प्रयत्न करता रहे, योग को छोड़े नहीं।।
क्योंकि कोई भी मनुष्य भलीभाँति सम्यक् प्रयत्न किये विना थोड़ी-थोड़ी सी भी उपलब्धि कर ले-ऐसा सम्भव नहीं है।।
अतः बुद्धिमान व्यक्ति चित्त की प्रवृत्ति के आकार का निरीक्षणे कर, सन्तुलित उद्योग के साथ पुनः-पुनः चित्त को योग से युक्त करे।।