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विशुद्धिमग्ग
असमाहितपुग्गलपरिवज्जनता, समाहितपुग्गलसेवनता, झानविमोक्खपच्चवेक्खणता, तदधिमुत्तताति ।
पञ्च धम्मा उपेक्खासम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय संवत्तन्ति - सत्तमज्झत्तता, सङ्घारमज्झत्तता, सत्तसङ्घारकेलायनपुग्गलपरिवज्जनता, सत्तसङ्घारमज्झत्तपुग्गलसेवनता, तदधिमुत्तता ति । इति इमेहाकारेहि एते धम्मे उप्पादेन्तो पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गादयो भावेति नाम । एवं " यस्मि समयं चित्तं निग्गहेतब्बं तस्मि समये चित्तं निग्गण्हाति" ।
(६) कथं यस्मि समये चित्तं सम्पहंसितब्बं तस्मि समये चित्तं सम्पहंसेति ? यदास्स पञ्ञपयोगमन्दताय वा उपसमसुखानधिगमेन वा निरस्सादं चित्तं होति, तदा नं अट्ठसंवेगवत्थुपच्चवेक्खणेन संवेजेति । अट्ठ संवेगवत्थूनि नाम - जाति - जरा - ब्याधि - मरणानि चत्तारि, अपायदुक्खं पञ्चमं, अतीते वट्टमूलकं दुक्खं, अनागते वट्टमूलकं दुक्खं, पच्चुप्पन्ने आहारपरियेट्ठिमूलकं दुक्खं ति । बुद्ध धम्म - -सङ्घगुणानुस्सरणेन चस्स पसादं जनेति । एवं " यस्मि समये चित्तं सम्पहंसितब्बं तस्मि समये चित्तं सम्पहंसेति" ।
(७) कथं यस्मि समये चित्तं अज्झपेक्खितब्बं तस्मि समये चित्तं अज्झुपेक्खति ? यदास्स एवं पटिपज्जतो अलीनं अनुद्धतं अनिरस्सादं आरम्मणे समप्पवत्तं समवीथि(२) निमित्त - कौशल, (३) इन्द्रियों में समत्व बनाये रखना, (४) उचित समय पर चित्त का निग्रह करना, (५) उचित समय पर चित्त का प्रग्रह करना, (६) उपेक्षायुक्त (= आस्वादरहित) चित्त को श्रद्धा एवं संवेग के द्वारा प्रफुल्लित करना, (७) जो ठीक तरह से घटित हो रहा हो, उसके प्रति उपेक्षा बनाये रखना, (८) असमाहित व्यक्ति का त्याग, (९) समाहित व्यक्ति की सेवा, (१०) ध्यान एवं विमोक्ष का प्रत्यवेक्षण करना एवं (११) उस समाधि के प्रति अधिमुक्ति ।
(ग) उपेक्षासम्बोध्यङ्ग की उत्पत्ति के लिये पाँच धर्म हैं- (१) सभी प्राणियों के प्रति तटस्थता, (२) सभी संस्कारों के प्रति तटस्थता, (३) प्राणियों एवं संस्कारों के प्रति ममत्व रखने वाले व्यक्तियों का त्याग, (४) प्राणियों एवं संस्कारों के प्रति तटस्थ रहने वाले व्यक्तियों की सेवा, (५) उस (उपेक्षा) के प्रति अधिमुक्ति । ऐसे इन आकारों (उपायों) से इन धर्मों की उत्पत्ति करते हुए प्रश्रब्धिसम्बोध्यम आदि की भावना करता है। इस प्रकार - "जिस समय चित्त का निग्रह करना चाहिये उस समय चित्त का निग्रह करता है" (- इस वाक्यांश का व्याख्यान पूर्ण हुआ ) ।
(६) कैसे जिस समय चित्त को प्रफुल्लित (= प्रोत्साहित, समुत्तेजित करना चाहिये, उस समय चित्त को प्रफुल्लित करता है? जब इस भिक्षु का चित्त प्रज्ञा के अल्प प्रयोग के कारण या उपशम(शान्ति) सुख को प्राप्त न कर सकने के कारण अनमना रहता है, तब वह साधक आठ संवेगवस्तुओं के प्रत्यवेक्षण द्वारा इसे संवेगयुक्त (= उत्तेजित) करता है। वे आठ संवेग-वस्तु हैं - (१-४) जाति, जरा, व्याधि, मरण-ये चार, (५) अपाय - दुःख पाँचवीं (६) अतीतकाल में भव-चक्र में पड़ने से उत्पन्न दुःख, (७) अनागत काल में भव-चक्र में पड़ने से उत्पन्न हो सकने वाला दुःख एवं (८) प्रत्युत्पन्न काल में आहार की खोज से उत्पन्न दुःख । बुद्ध, धर्म एवं सङ्घ के स्मरण से इस चित्त में प्रसन्नता (प्रीति) उत्पन्न होती है। इस प्रकार - " जिस समय चित्त को प्रफुल्लित करना चाहिये उस समय चित्त को प्रफुल्लित करता है"- इस वाक्य का यह व्याख्या है ।।
(७) कैसे "जिस समय चित्त की उपेक्षा करनी चाहिये उस समय चित्त की उपेक्षा करता है "? जब इस प्रकार योजनानुसार चलते हुए उसका चित्त आलस्य एवं औद्धत्य से रहित, समाधि के