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४. पथवीकसिणनिद्देस
१८५ - तथा "अत्थि, भिक्खवे, समथनिमित्तं अब्यग्गनिमित्तं। तत्थ योनिसो मनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा समाधिसम्बोझङ्गस्स उप्पादाय, उप्पन्नस्स वा समाधिसम्बोज्झङ्गस्स भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तती" (सं०नि०४-९५)
ति।
___तथा "अत्थि, भिक्खवे, उपेक्खासम्बोझङ्गहानिया धम्मा। तत्थ योनिसो मनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा उपेक्खासम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय, उप्पन्नस्स वा उपेक्खासमबोज्झङ्गस्स भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तती" (सं० नि० ४-९५)ति।
तत्थ यथास्स पस्सद्धिआदयो उप्पन्नपुब्बा, तं आकारं सल्लक्खेत्वा तेसं उप्पादनवसेन पवत्तमनसिकारो व तीसु पि पदेसु योनिसो मनसिकारो नाम। समथनिमित्तं ति च समथस्सेवेतं अधिवचनं । अविक्खेपट्टेन च तस्सेव अब्यग्गनिमित्तं ति।
अपि च सत्त धम्मा पस्सद्धिसम्बोज्झङ्ग स्स उप्पादाय संवत्तन्तिपणीतभोजनसेवनता, उतुसुखसेवनता, इरियापथसुखसेवनता, मज्झत्तपयोगता, सारद्धकायपुग्गलपरिवजनता, पस्सद्धकायपुग्गलसेवनता, तदधिमुत्तता ति।
एकादस धम्मा समाधिसम्बोझङ्गस्स उप्पादाय संवत्तन्ति–वत्थुविसदता, निमित्तकुसलता, इन्द्रियसमत्तपटिपादनता, समये चित्तस्स निग्गहणता, समये चित्तस्स पग्गहणता, निरस्सादस्स चित्तस्स सद्धासंवेगवसेन सम्पहंसनता, सम्मापवत्तस्स अज्झुपेक्खणता, जो योनिशोमनस्कार है, वह अनुत्पन्न प्रब्धिसम्बोध्यङ्ग की उत्पत्ति के लिये अथवा उत्पन्न प्रश्रब्धिसम्बोध्यङ्ग की वृद्धि, विकास एवं भावना की परिपूर्णता के लिये आहार है।"
तथा-"भिक्षुओ! शमथनिमित्त एवं अव्यग्रनिमित्त भी हैं। उनमें भलीभाँति अभ्यास किया गया जो योनिशोमनस्कार है, वह अनुत्पन्न समाधिसम्बोध्यङ्ग की उत्पत्ति के लिए तथा उत्पन्न समाधिसम्बोधाङ्ग की वृद्धि, विकास एवं भावना की परिपूर्णता के लिये आहार है।" ।
तथा-"भिक्षुओ! धर्म उपेक्षासम्बोध्यङ्गस्थानीय हैं। उनमें जो भलीभाति अभ्यास किया गया योनिशोमनस्कार है, वह अनुत्पन्न उपेक्षासम्बोध्यङ्ग की उत्पत्ति के लिये या उत्पन्न उपेक्षासम्बोध्यङ्ग की वृद्धि, विकास एवं भावना की परिपूर्णता के लिये आहार है।"
यहाँ “अत्थि, भिक्खवे" आदि द्वारा दर्शित पालि में तीनों पदों (उदाहरणवाक्यों) में जो 'योनिशोमनस्कार' शब्द आया है, उस का तात्पर्य है-उसमें प्रअब्धि आदि पूर्व समय में जिस प्रकार उत्पन्न हुए हैं, उस आकार, उपाय, विधि का निरीक्षण करते हुए, उनकी उत्पत्ति के अनुसार प्रवृत्त मनस्कार शमथनिमित्त शमथ का ही अधिवचन (पर्याय) है। अविक्षेप के अर्थ में उसी शमथ का अधिवचन अव्यग्र-निमित्त है।
(क) प्रब्धिसम्बोध्या की उत्पत्ति के लिये सात धर्म हैं- (१) उत्तम भोजन का सेवन, (२) सुखकर ऋतु का सेवन, (३) सुखकर ईर्यापथ का सेवन, (४) मध्यस्थ (तटस्थ) रहना, (५) आक्रामक (=हिंसक, क्रोधी) प्रकृति के व्यक्तियों का त्याग, (६) शान्त प्रकृति के व्यक्तियों की सेवा, ७) उस (प्रश्रब्धि) के प्रति अधिमुक्ति।
(ख) समाधिसम्बोध्या की भावना के लिये ग्यारह धर्म हैं-(१) वस्तुओं को स्वच्छ रखना,