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विशुद्धिमग्ग
(५) कथं यस्मि समये चित्तं निग्गहेतब्बं तस्मि समये चित्तं निग्गण्हाति ? यदास्स अच्चारद्धवीरियतादीहि उद्धतं चित्तं होति, तदा धम्मविचयसम्बोज्झङ्गादयो तयो अभावेत्वा पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गादयो भावेति ।
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वृत्तं तं भगवता -
"सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो महन्तं अग्गिक्खन्धं निब्बापेतुकामो अस्स, सो तत्थ सुक्खानि चेव तिणानि पक्खिपेय्य....पे..... न च पंसुकेन ओकिरेय्य, भब्बो नु खो सो, भिक्खवे, पुरिसो महन्तं अग्गिक्खन्धं निब्बापेतुं" ति ? "नो हेतं, भन्ते ।" " एवमेव खो, भिक्खवे, यस्मिं समये उद्धतं चित्तं होति, अकालो तस्मि समये धम्मविचयसम्बोज्झङ्गस्स भावनाय, अकालो विरिय... पे०....अकालो पीतिसम्बोज्झङ्गस्य भावनाय । तं किस्स हेतु ? उद्ध, भिक्खवे, चित्तं तं एतेहि धम्मेहि दुवूपसमयं होति । यस्मिं च खो, भिक्खवे, समये उद्धतं चित्तं होति, कालो तस्मि समये पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गस्य भावनाय कालो समाधिसम्बोज्झङ्गस्स भावनाय, कालो उपेक्खासम्बोज्झङ्गस्स भावनाय । तं किस्स हेतु ? उद्धतं, भिक्खवे, चित्तं तं एतेहि धम्मेहि सुवूपसमयं होति । "
"सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो महन्तं अग्गिक्खन्धं निब्बापेतुकामो अस्स, सो तत्थ अल्लानि चेव तिणानि पक्खिपेय्य.... पे०... पंसुकेन च ओकिरेय्य, भब्बो नु खो सो, भिक्खवे, पुरिसो महन्तं अग्गिक्खन्धं निब्बापेतुं" ति ?" एवं भन्ते" (सं० ४-१०२ ) ति । एत्थापि यथासकं आहारवसेन पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गादीनं भावना वेदितब्बा । वृत्तं तं भगवता - " अत्थि, भिक्खवे, कायपस्सद्धि चित्तपस्सद्धि । तत्थ योनिसो मनसिकार - बहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय, उप्पन्नस्स वा पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गस्स भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपुरिया संवत्तती" (सं० नि० ४-९५ ) ति ।
(५) कैसे "जिस समय चित्त का निग्रह करना चाहिये उस समय चित्त का निग्रह करता है "? जब इस भिक्षु का चित्त अत्यधिक वीर्य आदि के कारण उद्धत होता है, तब धर्मविचयसम्बोध्यङ्ग आदि तीन सम्बोध्यङ्गों की भावना न कर प्रश्रब्धिसम्बोध्यङ्ग की भावना करनी चाहिये; क्योंकि भगवान् ने कहा है-'भिक्षुओ, जैसे कोई पुरुष अग्नि की विशाल राशि को बुझाना चाहे और वह उसमें सूखे हुए तिनके डाले...पूर्ववत्... उसपर धूल न डाले, तो क्या भिक्षुओ ! अग्नि की उस विशाल राशि को वह बुझा सकेगा?" "नहीं, भन्ते!" "इसी प्रकार भिक्षुओ, जिस समय चित्त उद्धत होता है, वह समय धर्मविचयसम्बोध्यङ्ग की भावना के लिये अनुपयुक्त है, वीर्य प्रीति अनुपयुक्त है। वह क्यों ? क्योंकि जो चित्त उद्धत है, वह इन धर्मों (कार्यों) से शान्त नहीं होता। भिक्षुओ! जिस समय चित्त उद्धत हो, वही समय प्रश्रब्धिसम्बोध्यङ्ग की भावना के लिये उपयुक्त है, समाधि उपेक्षा उपयुक्त है। वह क्यों ? क्योंकि, भिक्षुओ ! जो चित्त उद्धत है वह इन धर्मों से शान्त होता है।
" जैसे, भिक्षुओ ! कोई पुरुष अग्नि की विशाल राशि को बुझाना चाहे और वह उसमें गीले तिनके डाले...पूर्ववत् धूल बिखेर दे, तो क्या, भिक्षुओ ! वह पुरुष अग्नि की विशाल राशि को बुझा पायगा ?" "हाँ, भन्ते" ।
यहाँ भी हर एक के लिये आहार के अनुसार प्रश्रब्धिसम्बोध्यम की भावना जाननी चाहिये; क्योंकि संयुत्तनिकाय में भगवान् ने यह कहा है
"भिक्षुओ! प्रश्रब्धि दो हैं- कायप्रश्रब्धि एवं चित्तप्रश्रब्धि । उनमें भलीभाँति अभ्यास किया गया.