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४. पथवीकसिणनिद्देस एकादस धम्मा विरियसम्बोज्झङ्गस्य उप्पादाय संवत्तन्ति-अपायादिभयपच्चवेक्षणता, विरियायत्तलोकियलोकुत्तरविसेसाधिगमानिसंसदस्सिता, "बुद्धपच्चेकबुद्धमहासावकेहि गतमग्गो मया गन्तब्बो, सो च न सका कुसीदेन गन्तुं" ति एवं गमनवीथिपच्चवेक्खणता, दायकानं महप्फलभावकरणेन पिण्डापचायनता, "विरियारम्भस्स वण्णवादी मे सत्था, सो च अनतिक्कमनीयसासनो, अम्हाकं च बहूपकारो, पटिपत्तिया च पूजियमानो पूजितो होति, न इतरथा" ति एवं सत्थु महत्तपच्चवेक्षणता, "सद्धम्मसवातं मे महादायजं गहेतब्बं, तं च न सका कुसीदेन गहेतुं" ति एवं दायज्जमहत्तपच्चवेक्खणता, आलोकसामनसिकार-इरियापथपरिवत्तन-अब्भोकाससेवनादीहि थीनमिद्धविनोदनता, कुसीतपुग्गलपरिवजनता, आरद्धविरियपुग्गलसेवनता, सम्मप्पधानपच्चवेक्षणता, तदधिमुत्तता ति।
एकादस धम्मा पीतिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय संवत्तन्ति, बुद्धानुस्सति, धम्म..... सील....चाग....देवतानुस्सति, उपसमानुस्सति, लूखपुग्गलपरिवज्जनता, सिनिद्धपुग्गलसेवनता, पसादनियसुत्तन्तपच्चवेक्खणता, तदधिमुत्तता ति।।
इति इमेहि आकारेहि एते धम्मे उप्पादेन्तो धम्मविचयसम्बोज्झङ्गादयो भावेति नाम। एवं "यस्मि समये चित्तं पग्गहेतब्बं तस्मि समये चित्तं पग्गण्हाति।" । प्रज्ञावान् व्यक्ति का सङ्ग (६) गम्भीर ज्ञान के अभ्यास के लिये क्षेत्र का प्रत्यवेक्षण एवं (७) उस धर्मविचय के प्रति अधिमुक्ति।
(ख) वीर्य सम्बोध्यङ्ग की उत्पत्ति के लिये ग्यारह धर्म हैं- (१) अपाय (-दुर्गति) आदि में भय देखना, (२) वीर्य के द्वारा प्राप्त होने वाली लौकिक एवं लोकोत्तर विशिष्ट उपलब्धियों को लाभप्रद समझना, (३) "बुद्ध, प्रत्येकबुद्ध, महाश्रावक जिस मार्ग से गये उससे मुझे जाना चाहिये और उससे आलसी व्यक्ति नहीं जा सकता"-यों गमनमार्ग का प्रत्यवेक्षण करना, (४) "दाताओं को महान् फल प्राप्त हो"-इस भावना से भिक्षा का समादर करना, (५) "मेरे शास्ता वीर्यारम्भ की प्रशंसा करने वाले हैं एवं उनका शासन उल्लहन करने योग्य नहीं है, हमारे लिये वह बहुत उपकारी है तथा वे प्रतिपत्ति (आचरण) द्वारा पूजित होने पर ही पूजित होते हैं, अन्यथा नहीं"-इस प्रकार शास्ता के महत्त्व का प्रत्यवेक्षण करना, (६) "सद्धर्म नामक महान् उत्तराधिकार का मुझे ग्रहण करना चाहिये एवं उसे आलसी नहीं ग्रहण कर सकता"-इस प्रकार उत्तराधिकार के महत्त्व का प्रत्यवेक्षण करना, (७) आलोक संज्ञा को मन में लाना (मनस्कार), ईर्यापथ में परिवर्तन एवं खुले स्थान के सेवन आदि द्वारा शारीरिक मानसिक आलस्य को दूर करना, (८) आलसी व्यक्ति के संसर्ग का त्याग, (९) उद्योगी व्यक्ति का सेवन (सम्पर्क), (१०) सम्यक्प्रधान (=आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग के अन्तर्गत छठे अङ्ग सम्यग्व्यायाम' का अधिवचन) का प्रत्यवेक्षण तथा (११) उस वीर्य के प्रति अधिमुक्ति।
(ग) प्रीतिसम्बोध्यङ्ग के उत्पाद के लिये ग्यारह धर्म हैं- (१) बुद्धानुस्मृति, (२) धर्मानुस्मृति, (३) सहानुस्मृति, (४) शीलानु... (५) त्यागानु... (६) देवतानु..... (७) उपशमानुस्मृति, (८-१०) रूम (स्वभाव के) या खिग्ध व्यक्ति आदि के प्रति चित्त में श्रद्धा उत्पन्न करने वाले सूत्रों का प्रत्यवेक्षण तथा (११) उस प्रीति के प्रति अधिमुक्ति ।
इन आकारों से इन धर्मों को उत्पन्न करता हुआ धर्मविचयसम्बोध्या आदि की भावना करता है।
इस प्रकार "जिस समय चित्त को पकड़ना चाहिये, उस समय चित्त को पकड़ता है"-इस पालिपाठ का सङ्गमन हुआ।