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________________ १८२ विसुद्धिमग्ग वा धम्मविचयसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय, उप्पन्नस्स वा धम्मविचयसम्बोज्झङ्गस्स भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तती" (सं० नि० ४-९४) ति। __ तथा "अत्थि, भिक्खवे, आरम्भधातु निकमधातु परकमधातु। तत्थ योनिसो मनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा विरियसम्बोझङ्गस्स उप्पादाय, उप्पन्नस्स वा विरियसम्बोझङ्गस्स भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तति" (सं० नि० ४-९४) ति। तथा "अत्थि, भिक्खवे, पीतिसम्बोज्झनहानिया धम्मा। तत्थ योनिसो मनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा पीतिसम्बोझङ्गस्स उप्पादाय उप्पन्नस्स वा पीतिसम्बोज्झङ्गस्स भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय परिपूरिया संवत्तती" (सं. नि० ४-९४) ति। तत्थ सभावसामञ्जलक्खणपटिवेधवसेन पवत्तमनसिकारो कुसलादीसु योनिसो मनसिकारो नाम। आरम्भधातुआदीनं उप्पादनवसेन पवत्तमनसिकारो आरम्भधातुआदीसु योनिसो मनसिकारो नाम। तत्थ आरम्भधातू ति पठमविरियं वुच्चति । निक्कमधातू ति कोसज्जतो निक्खन्तत्ता ततो बलवतरं। परक्कमधातू ति परं ठानं अकमनतो ततो पि बलवतरं। पीतिसम्बोझङ्गट्ठानिया धम्मा ति पन पीतिया एव एतं नामं। तस्सापि उप्पादकमनसिकारो व योनिसो मनसिकारो नाम। अपि च सत्त धम्मा धम्मविचयसम्बोज्झङ्गस्य उप्पादाय संवत्तन्ति-परिपुच्छकता, वत्थुविसदकिरिया, इन्द्रियसमत्तपटिपादना, दुप्पञपुग्गलपरिवज्जना, पञ्जवन्तपुग्गलसेवना, गम्भीरसाणचरियपच्चवेक्खणा, तदधिमुत्तता ति। एवं शुक्ल धर्म परस्पर विपरीत होते हैं। उनमें भलीभाँति अभ्यास किया गया जो योनिशोमनस्कार है, वही अनुत्पन्न धर्मविचयसम्बोध्यङ्ग के उत्पाद के लिये अथवा उत्पन्न धर्मविचयसम्बोध्यङ्ग की वृद्धि, विकास एवं भावना की परिपूर्णता के लिये आहार अर्थात् पोषक तत्त्व है।" तथा-"भिक्षुओ, तीन धातु है-आरम्भधातु, निष्क्रमणधातु, पराक्रम धातु । उनमें जो भलीभाँति अभ्यास किया गया योनिशोमनस्कार है वही अनुत्पन्न वीर्यसम्बोध्या की उत्पत्ति के लिये अथवा उत्पन्न वीर्यसम्बोध्या की वृद्धि, विकास एवं भावना की परिपूर्णता के लिये आहार है।" तथा-"भिक्षुओ, धर्म प्रीतिसम्बोध्यङ्गस्थानीय हैं। उनमें जो भलीभाँति अभ्यास किया गया योनिशोमनस्कार है, वही उत्पन्न प्रीतिसम्बोध्या की वृद्धि, विकास एवं भावना की परिपूर्णता के लिये आहार है।" वहाँ (="अस्थि भिक्खवे" आदि द्वारा दर्शित पालि में) कुशल (धर्म) आदि स्वभाव, सामान्य लक्षण एवं प्रतिवेध के अनुसार प्रवृत्त मनस्कार को योनिशोमनस्कार कहते हैं। आरम्भ धातु आदि के उत्पाद के अनुसार प्रवृत्त मनस्कार को आरम्भ धातु आदि में योनिशोमनस्कार कहते हैं। उनमें, आरम्भधातु को प्रथम वीर्य कहा जाता है। निक्रमण धातु कौसीद्य से निष्क्रमण रूप होने के कारण उस आरम्भधातु से अधिक सबल है। पराक्रम धातु क्रमिक परवर्ती स्तरों तक पहुँचने के कारण उस निष्क्रमणधातु से भी अधिक सबल है। प्रीतिसम्बोध्यजस्थानीय धर्म स्वयं प्रीति ही है। एवं उसे उत्पन्न करने वाला मनस्कार ही योनिशोमनस्कार है। इसके अतिरिक्त.(क) धर्मविचयसम्बोध्या की उत्पत्ति के लिये सात धर्म हैं- (१) प्रश्न पूछना. (२) वस्तुओं को स्वच्छ रखना.(३) इन्द्रियों में सन्तुलन रखना, (४) मूर्ख व्यक्ति का त्याग,(५) .
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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