SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस १८१ यदास्स अतिसिथिलविरियतादीहि लीनं चित्तं होति, तदा पस्सद्धिसम्बोज्झनादयो तयो अभावत्वा धम्मविचयसम्बोज्झङ्गादयो भावेति । वुत्तं हेतं भगवता _ "सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो परित्तं अग्गिं उज्जालेतुकामो अस्स, सो तत्थ अल्लानि चेव तिणानि पक्खिपेय्य, अल्लानि च गोमयानि पक्खिपेय्य, अल्लानि च कट्ठानि पक्खिपेय्य, उदकवातं च ददेय्य, पंसुकेन च ओकिरेय्य, भब्बो नु खो सो, भिक्खवे, पुरिसो पा अग्गिं उज्जालेतुं" ति? "नो हेतं, भन्ते"। "एवमेव खो, भिक्खवे, यस्मि समये लीनं चित्तं होति, अकालो तस्मि समये पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गस्स भावनाय, अकालो समाधि ....पे०....अकालो उपेक्खासम्बोज्झङ्गस्स भावनाय । तं किस्स हेतु ? लीनं भिक्खवे चित्तं, तं एतेहि धम्मेहि दुसमुट्ठापयं होति। यस्मि च खो, भिक्खवे, लीनं चित्तं होति, कालो तस्मि समये धम्मविचयसम्बोज्झङ्गस्स भावनाय, कालो विरियसम्बोज्झङ्गस्स भावनाय।तं किस्स हेतु? लीनं, भिक्खवे, चित्तं, तं एतेहि धम्मेहि सुसमुट्ठापयं होति। "सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो परित्तं अग्गिं उज्जालेतुकामो अस्स, सो तत्थ सुक्खानि चेव तिणानि पक्खिपेय्य, सुक्खानि च गोमयानि पक्खिपेय्य, सुक्खानि च कट्ठानि पक्खिपेय्य, मुखवातं च ददेय्य, न च पंसुकेन ओकिरेय्य, भब्बो नु खो सो, भिक्खवे, पुरिसो परित्तं अग्गिं उज्जालेतुं"? ति "एवं भन्ते" (सं० ४-१०१) . एत्थ च यथासकं आहारवसेन धम्मविचयसम्बोज्झनादीनं भावना वेदितब्बा। वुत्तं हेतं "अत्थि, भिक्खवे, कुसलाकुसला धम्मा, सावजानवज्जा धम्मा, हीनप्पणीता धम्मा, कण्हसुक्कसप्पटिभागा धम्मा। तत्थ योनिसो मनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स (४) यस्मि समये चित्तं पग्गहितब, तस्मि समये चित्तं परगण्हाति? (कैसे जिस प्रकार चित्त को पकड़कर रखना चाहिये, उस समय पकड़ कर रखता है?) जब इसका चित्त अत्यन्त दुर्बल वीर्य आदि के कारण आलस्य से युक्त होता है, तब प्रश्रब्धिसम्बोध्यङ्ग आदि तीन बोध्यङ्गों की भावना न कर धर्मविचयसम्बोध्या की भावना करता है। क्योंकि भगवान् ने (संयुक्तनिकाय में) कहा भी है "भिक्षुओ, जैसे कोई पुरुष थोड़ी अग्नि जलाना चाहे और वह उसमें कुछ नमी लिये गीले तिनके, गीले कण्डे या गीली लकड़ियाँ डाले, गीली हवा दे, अग्नि पर धूल बिखेर दे; तो क्या भिक्षुओ! वह पुरुष थोड़ी भी अग्नि जला पायगा?" "नहीं, भन्ते!" "इसी प्रकार, भिक्षुओ, जिस समय चित्त आलस्य से युक्त होता है, वह समय प्रत्रब्धिसम्बोध्या की भावना के लिये अनुपयुक्त है, समाधि...अनुपयुक्त है, उपेक्षा....अनुपयुक्त है। ऐसा क्यों? क्योंकि भिक्षुओ! आलस्ययुक्त चित्त को इन धर्मों के द्वारा जगाना कठिन होता है। भिक्षुओ, जिस समय चित्त आलस्ययुक्त होता है, वह समय धर्मविचयसम्बोध्यङ्ग भी भावना के लिये उपयुक्त है, प्रीतिसम्बोध्या....उपयुक्त है। वह क्यों? क्योंकि आलस्ययुक्त चित्त को इन धर्मा द्वारा जगाना सम्भव है। "भिक्षुओ, जैसे कोई पुरुष थोड़ी सी अग्नि जलाना चाहे और वह उसमें सूखे तिनके, सूखे कण्डे, सूखी लकड़ियाँ डाले, मुख से हवा करे, धूल न बिखेरे, तो भिक्षुओ! क्या वह पुरुष थोड़ी अग्नि जला पायगा?" "हाँ भन्ते!" यहाँ, प्रत्येक साधक को आहार के अनुसार धर्मविचयसम्बोध्यङ्ग आदि की भावना जाननी चाहिये; क्योंकि संयुक्तनिकाय में कहा गया है-"भिक्षुओ, कुशल एवं अकुशल धर्म सावद्य (=निन्दनीय)
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy