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_ विसुद्धिमग्ग अपि च-समाधिकम्मिकस्स बलवती पि सद्धा वट्टति। एवं सद्दहन्तो ओकप्पेन्तो अप्पनं पापुणिस्सति। समाधिपज्ञासु पन समाधिकम्मिकस्स एकग्गता बलवती वट्टति। एवं हि सो अप्पनं पापुणाति। विपस्सनाकम्मिकस्स पञ्जा बलवती वट्टति। एवं हि सो लक्खणपटिवेधं पापुणाति। उभिन्नं पन समताय पि अप्पना होति येव। सति पन सब्बत्थ बलवती वट्टति। सति हि चित्तं उद्धच्चपक्खिकानं सद्धाविरियेपानं वसेन उद्धच्चपाततो कोसज्जपक्खेन च समाधिना कोसज्जपाततो रक्खति, तस्मा सा लोणधूपनं विय सब्बब्यञ्जनेसु, सब्बकम्मिकअमच्चो विय च सब्बराजकिच्चेसु, सब्बत्थ इच्छितब्बा। तेनाह-"सति च पन सब्बत्थिका वुत्ता भगवता। किं कारणा? चित्तं हि सतिपटिसरणं, आरक्खपच्चुपट्ठाना च सति, न विना सतिया चित्तस्स पग्गहनिग्गहो होति" ति।
(३) निमित्तकोसलं नाम पथवीकसिणादिकस्सचित्तेकग्गतानिमित्तस्स अकतस्स करणकोसल्लं, कतस्स च भावनाकोसलं, भावनाय लद्धस्स रक्खणकोसलं च, तं इध अधिप्पेतं।
(४) कथं च यस्मि समये चित्तं पग्गहेतब्ब, तस्मि समये चित्तं पग्गण्हाति? औषधि की प्रतिक्रिया से उत्पन्न हुए रोग के समान असाध्य होता है। दोनों की समता होने से वस्तु में ही श्रद्धा करता है।
(ग) जिसमें समाधि सबल और वीर्य निर्बल होते हैं, वह आलस्य के वश में हो जाता है; क्योंकि समाधि आलस्य की पक्षधर है अर्थात् समाधि के अभ्यासी के लिये आलस्य के वशीभूत हो जाना सम्भव है।
(घ) जिसमे वीर्य सबल एवं समाधि निर्बल होती है, वह औद्धत्य के वश में हो जाता है; क्योंकि वीर्य औद्धत्य का पक्षधर है।
(ङ) किन्तु वीर्यसम्पृक्त समाधि का आलस्य में पतन नहीं हो सकता, समाधिसम्पृक्त वीर्य का औद्धत्य में पतन नहीं हो सकता; अतः उन दोनों को सम करना चाहिये। दोनों की समता से ही अर्पणा होती है।
इसके अतिरिक्त, समाधि के अभ्यासी में श्रद्धा सबल होनी चाहिये; क्योंकि इस प्रकार श्रद्धा और विश्वास करने से ही वह अर्पणा को प्राप्त करेगा। समाधि और प्रज्ञा में-समाधि के अभ्यासी में एकाग्रता सबल होनी चाहिये। इसी से वह अर्पणा को प्राप्त करता है। विपश्यना (प्रज्ञा) के अभ्यासी में प्रज्ञा सबल होनी चाहिये । इसी प्रकार वह लक्षणप्रतिवेध (=अनित्य, दुःख, अनात्म-इन तीनों लक्षणों का ज्ञान) प्राप्त करेगा। एवं दोनों की समता से तो अर्पणा होती ही है। किन्तु स्मृति को तो सर्वत्र सबल रहना चाहिये। औद्धत्य-पक्षधर श्रद्धा, वीर्य एवं प्रज्ञा के कारण सम्भव औद्धत्य में पतित होने से एवं समाधि, क्योंकि आलस्य की पक्षधर है अतः, आलस्य में पतित होने से, चित्त की रक्षा स्मृति ही करती है। इसलिये सभी व्यअनों (खाद्य पदार्थों) में नमक के सहयोग (लोणधूपन) के समान एवं सभी राज्यकार्यों में प्रधानमन्त्री (सर्वकार्मिक अमात्य) के समान, वह स्मृति सर्वत्र वाञ्छनीय है। इसीलिये कहा गया है-"भगवान् ने स्मृति को सर्वार्थिका कहा है क्यों? क्योंकि स्मृति ही चित्त के लिये शरण है एवं स्मृति को रक्षा करने वाली के रूप में जाना जाता है अति के अभाव में चित्त के प्रग्रह-निग्रह नहीं हुआ करते।"
(३) निमित्त-कौशल का तात्पर्य है- १. चित्त की एकाता के निमित्त पृथ्वीकसिण आदि, जो अभी तक नहीं किये गये हैं, उन्हें करने का कौशल, २.किये हुए की भावना करने का कौशल . एवं ३. भावना से प्राप्त हुए की रक्षा करने का कौशल (निपुणता)। यहाँ वही (अन्तिम) अभिप्रेत है।