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________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस १७९ (२) इन्द्रियसमत्तपटिपादनं नाम सद्धादीनं इन्द्रियानं समभावकरणं। सचे हिस्स सद्धिन्द्रियं बलवं होति इतरानि मन्दानि, ततो विरियिन्द्रियं पग्गहकिच्चं, सतिन्द्रियं उपट्ठानकिच्चं, समाधिन्द्रियं अविक्खेपकिच्चं, पञ्जिन्द्रियं दस्सनकिच्चं कातुं न सक्कोति, तस्मा तं धम्मसभावपच्चवेक्खणेन वा यथा वा मनसिकरोतो बलवं जातं, तथा अमनसिकारेन हापेतब्बं । वक्कलित्येरवत्थु (सं० २-३४१) चेत्थ निदस्सनं । सचे पन विरियिन्द्रियं बलवं होति, अथ नेव सद्धिन्द्रियं अधिमोक्खकिच्चं कातुं सकोति,न इतरानि इतरकिच्चभेदं, तस्मा तं पस्सद्धादिभावनाय हापेतब्बं । तत्रापि सोणत्थेरवत्थु (वि०३-२००) दस्सेतब्बं । एवं सेसेसु पि एकस्स बलवभावे सति इतरेसं अत्तना किच्चेसु असमत्थता वेदितब्बा। विसेसतो पनेत्थ सद्धापानं समाधिविरियानं च समतं पसंसन्ति । बलवसद्धो हि मन्दपओ मुद्धप्पसनो होति, अवत्थुस्मि पसीदति। बलवपञो मन्दसद्धो केराटिकपक्खं भजति, भेसजसमुट्टितो विय रोगो अतेकिच्छो होति। उभिन्नं समताय वत्थुस्मि येव पसीदति। बलवसमाधिं पन मन्दविरियं समाधिस्स कोसज्जपक्खत्ता कोसज्जं अभिभवति। बलवविरियं मन्दसमाधिं विरियस्स उद्धच्चपक्खत्ता उद्धच्चं अभिभवति।समाधि पन विरियेन संयोजितो कोसज्जे पतितुं न लभति। विरियं समाधिना संयोजितं उद्धच्चे पतितुं न लभति, तस्मा तदुभयं समं कातब्बं । उभयसमताय हि अप्पना होति। (२) इन्द्रियों में समत्व (=सन्तुलन) रखने का तात्पर्य है-श्रद्धा आदि इन्द्रियों को एक समान करना । यदि इस भिक्षु की श्रद्धेन्द्रिय तो सबल हो परन्तु अन्य इन्द्रियाँ निर्बल हों तो वीर्येन्द्रिय पकड़ने (=प्रग्रह) का, स्मृतीन्द्रिय उपस्थित रहने का एवं समाधीन्द्रिय एकाग्रता (=अविक्षेप) का, प्रज्ञेन्द्रिय यथाभूत दर्शन का कार्य नहीं कर सकती; इसलिये उसे चाहिये कि धर्मों के स्वभाव का प्रत्यवेक्षण कर अथवा जैसे ध्यान देने से वह इन्द्रिय सबल हुई हो, वैसे ध्यान न देकर उसे कम करे, अन्य इन्द्रियों के समान स्थिति में ले आये। यहाँ वक्कलि स्थविर की कथा (सं. २,३४१) उदाहरण है। यदि वीर्येन्द्रिय प्रबल होती है, तो न तो श्रद्धेन्द्रिय अधिमोक्ष (दृढ़ निश्चय, संकल्प) का कार्य कर सकती है, न ही अन्य इन्द्रियाँ अन्य कार्य; इसलिये उसे प्रश्रब्धि आदि की भावना द्वारा कम करना चाहिये। यहाँ सोण स्थविर की कथा (वि०३,२००) का उदाहरण देना चाहिये। इसी प्रकार शेष में से किसी एक के सबल होने पर अन्यों की अपने अपने कृत्यों में असमर्थता समझनी चाहिये। किन्तु यहाँ (=पाँचों इन्द्रियों में) विशेष रूप से श्रद्धा एवं प्रज्ञा, समाधि एवं वीर्य के समभाव की प्रशंसा की जाती है। (क) जिसमें श्रद्धा प्रबल और प्रज्ञा निर्बल है, वह 'मुग्ध प्रसन्न' विना सोचे-विचारे किसी पर श्रद्धा करता है। (ख) जिसमे प्रज्ञा प्रबल और श्रद्धा निर्बल होती है, वह शठता की ओर झुक जाता है एवं १."वक्कलि स्थविर श्रद्धा की प्रबलता के कारण भगवान् के शरीर की शोभा पर ही मुग्ध रहने से ध्यान-भावना नहीं कर सके। एक समय जब वह रोग से पीड़ित थे, तब भगवान ने उन्हें यह उपदेश दिया-"वक्कलि! मेरे इस प्रतिकाय को देखने से क्या लाभ? जो धर्म को देखता है, वही मुझे देखता है।" तत्पश्चात स्थविर ने सभी इन्द्रियों को एक समान कर अर्हत्त्वपाया। २.सोण स्थविर ने वीर्य की प्रबलता के कारण, अर्हत्त्वप्राप्ति हेतु घोर श्रम करते हुए शरीर को थका डाला. पैरों में छाले पड़ गये, किन्तु उनका उत्साह कम नहीं हुआ। तब भगवान् ने उन्हें वीणा का दृष्टान्त देते हुए, अधिक वीर्य न करने का उपदेश दिया। तत्पश्चात स्थविर ने, सभी इन्द्रियों को एक समान कर, अर्हत्त्व प्राप्त किया।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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