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________________ १७२ विसुद्धिमग्ग अविराधेत्वा चतारो कसिणदोसे परिहन्तेन कसिणं कातब्बं । नील-पीत-लोहित-ओदातसम्भेदवसेन हि चत्तारो पथवीकसिणदोसा। तस्मा नीलादिवण्णं मत्तिकं अग्गहेत्वा गङ्गावहे मत्तिकासदिसाय अरुणवण्णाय मत्तिकाय कसिणं कातब्बं । तं च खो विहारमझे सामणेरादीनं सञ्चरणट्ठाने न कातब्बं । विहारपच्चन्ते पन पटिच्छन्नट्ठाने पब्भारे वा पण्णसालाय वा संहारिमं वा तत्रट्ठकं वा कातब्बं। __ तत्र संहारिमं चतूसु दण्डकेसु पिलोतिकं वा चम्मं वा कटसारकं वा बन्धित्वा तत्थ अपनीततिणमूलसक्खरकथलिकाय सुमद्दिताय मत्तिकाय वुत्तप्पमाणं वर्ल्ड लिम्पेत्वा कातब्बं । तं परिकम्मकाले भूमियं अत्थरित्वा ओलोकेतब्बं । तत्रट्ठकं भूमियं पदुमकण्णिकाकारेन खाणुके आकोटेत्वा वल्लीहि विनन्धित्वा कातब्बं । यदि सा मत्तिका नप्पहोति, अधो अनं पक्खिपित्वा उपरिभागे सुपरिसोधिताय अरुणवण्णाय मत्तिकाय विदत्थिचतुरङ्गलवित्थारं वटै कातब्बं । एतदेव हि पमाणं सन्धाय-"सुप्पमते वा सरावमत्ते वा" ति वुत्तं। "सांन्तके नो अनन्तके' ति आदि पनस्स परिच्छेदत्थाय वुत्तं। ९. तस्मा एवं वुत्तप्पमाणपरिच्छेदं कत्वा रुक्खपाणिका विसभागवण्णं समुट्ठपेति, तस्मा तं अग्गहेत्वा-पासाणपाणिकाय घसेत्वा समं भेरीतलसदिसं कत्वा तं ठानं सम्मज्जित्वा न्हात्वा आगन्त्वा कसिणमण्डलतो अडतेय्यहत्थन्तरे पदेसे पञत्ते विदत्थिचतुरङ्गलपादके सुअत्थते पीठे निसीदितब्बं । ततो दूरतरे निसिन्नस्स हि कसिणं न उपट्ठाति, आसन्नतरे कसिणदोसा पायन्ति। उच्चतरे निसिनेन गीवं ओनमित्वा ओलोकेतब्बं होति, नीचतरे जण्णुकानि रुजन्ति। ८.किन्तु जो पूर्वजन्म का सुकृत न होने से, अकृताधिकारी है, उसे आचार्य के समीप सीखे गये कर्मस्थान की विधि को भङ्ग न करते हुए, कसिण के चार दोषों को दूर करते हुए कसिण बनाना चाहिये। नील, पीत, लोहित, अवदात भेद के अनुसार पृथ्वीकसिण के चार दोष होते हैं। इसलिये नील आदि वर्ण वाली मिट्टी को न लेकर गङ्गा के स्रोत की मिट्टी के समान अरुण रंग की मिट्टी से कसिण बनाना चाहिये; एवं उसे विहार में ऐसे स्थान पर नहीं बनाना चाहिये जहाँ श्रामणेर आदि इधर उधर घूमते रहते हों; अपितु विहार की सीमा पर स्थित किसी प्रच्छन्न स्थान पर, पडभार (=छज्जे) के नीचे, पर्णशाला में ले जाया जाने वाला या वहीं रहने वाला पृथ्वीकसिण बनाना चाहिये। (१) ले जाये जाने वाले कसिण को चार डण्डों में कपड़ा, चमड़ा या चटाई बाँधकर उस पर तृण, जड़,कंकड़ से रहित गूंथी हुई मिट्टी से, कहे गये परिमाण का गोला लीपकर बनाना चाहिये। परिकर्म ( ध्यान के प्राथमिक स्तर) के समय उसे भूमि पर रखकर देखना चाहिये। (२) वहीं रहने वाले को भूमि पर कमल की कर्णिका (बाहरी आच्छादन) के आकार के खूटे गाड़कर लताओं से बाँधकर बनाना चाहिये। यदि यह साफ की हुई मिट्टी पर्याप्त न हो, तो नीचे दूसरी मिट्टी डालकर ऊपर अच्छी तरह से साफ की हुई अरुण रंग की मिट्टी से एक बालिश्त चार अङ्गुल विस्तार वाला वृत्त बनाना चाहिये। इसी परिमाण के लिये 'सूपमात्र या शरावमात्र' कहा गया है। 'सान्त, न कि अनन्त' आदि उसकी सीमा के निर्धारण के लिये कहा गया है। ९. अतः इस प्रकार कथित परिमाण का वृत्त बनाकर, क्योंकि कुचन्दन आदि वृक्ष की लकड़ी से बनी हुई पाणिका (=एक प्रकार का चम्मच) रंग को विपरीत (लाल) कर देती है, अतः उसे न लेकर पत्थर की पाणिका से घिसकर समतल, नगाड़े के तले जैसा करके, उस स्थान को झाड़कर नहाने के बाद आकर कसिणमण्डल से ढाई हाथ की दूर पर बिछी हुई चार अङ्गुल के पायों वाली
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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