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________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस १७१ बोधेन हि भिक्खुना पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तेन भत्तसम्मदं पटिविनोदेत्वा पविवित्ते ओकासे सुखनिसिन्नेन कताय वा अकताय वा पथविया निमित्तं गण्हितब्बं । ६. वुत्तं हेतं__ "पथवीकसिणं उग्गण्हन्तो पथवियं निमित्तं गण्हाति कते वा अकते वा, सन्तिके नो अन्तके, सकोटिये नो अकोटिये, सवटुमे नो अवटुमे; सपरियन्ते नो अपरियन्ते, सुप्पमत्ते वा सरावमत्ते वा। सो तं निमित्तं सुग्गहितं करोति, सूपधारितं उपाधारेति, सुववत्थितं ववत्थपेति।सो तं निमित्तं सुग्गहितं कत्वा, सूपधारितं उपधारेत्वा, सुववत्थितं ववत्थपेत्वा, आनिसंसदस्सावी रतनसञ्जी हुत्वा, चित्तीकारं उपट्ठपेत्वा सम्पियायमानो तस्मि आरम्मणे चित्तं उपनिबन्धति 'अद्धा इमाय पटिपदाय जरामरणम्हा मुच्चिस्सामी' ति । सो विविच्चेव कामेहि पे... पठमं झानं उपसम्पज विहरती" ( )ति। ७. तत्थ येन अतीतभवे पि सासने वा इसिपब्बजाय वा पब्बजित्वा पथवीकसिणे चतुक्कपञ्चकझानानि निब्बत्तितपुब्बानि, एवरूपस्स पुञ्जवतो उपनिस्सयसम्पन्नस्स अकताय पथविया कसितट्ठाने वा खलमण्डले वा निमित्तं उप्पज्जति मल्लकत्थेरस्स विय। तस्स किरायस्मतो कसितट्ठानं ओलोकेन्तस्स तंठानप्पमाणमेव निमित्तं उदपादि। सो तं वड्डत्वा पञ्चकज्झानानि निब्बत्तेत्वा झानपदवानं विपस्सनं पट्ठपेत्वा अरहत्तं पापुणि। ८. यो पनेवं अकताधिकारो होति, तेन आचरियस्स सन्तिके उग्गहितकम्मट्ठानविधानं भावनाविधान ५. अब, सब्बं भावनाविधानं अपरिहापेन्तेन भावेतब्बं (भावनाविधान में से किसी को भी न छोड़ते हुए भावना करनी चाहिये- पृष्ठ १२५)- इस पृथ्वीकसिण से प्रारम्भ कर सभी कर्मस्थानों की व्याख्या की जायगी। इस प्रकार छोटे छोटे परिबोधों का नाश कर चुके, भोजन के पश्चात् भिक्षाटन से लौटे भिक्षु को भोजन से उत्पन्न तन्द्रा को दूरकर, एकान्त स्थान पर सुविधा से बैठकर (मिट्टी से वृत्ताकार) बनाये या न बनाये गये पृथ्वी के निमित्त को ग्रहण करना चाहिये। ६.क्योंकि किसी प्राचीन टीका में यह कहा गया है-"पृथ्वीकसिण का उद्ग्रहण (=ग्रहण) करने वाला कृत या अकृत, सान्त न कि अनन्त, कोणसहित न कि कोणरहित, वर्तुलाकार न कि अवर्तुलाकार, सपर्यन्त (=सीमित) न कि अपर्यन्त (=असीमित), सूपमात्र या शरावमात्र परिमाण वाले पृथ्वी-निमित्त का ग्रहण करता है। वह उस निमित्त को भलीभाँति ग्रहण करता है, धारण करता है और मन में सुव्यवस्थित करता है। वह उस निमित्त को भलीभाँति ग्रहण कर, धारण कर, सुव्यवस्थित कर, इसके माहात्म्य को देखने वाला एवं इसे रत्न के समान समझने वाला होकर, उसके प्रति मन में आदर उत्पन्न कर, उसे प्रिय मानते हुए, यह सोच कर कि "अवश्य ही मैं इस मार्ग के सहारे जरामरण से मुक्त हो जाऊँगा" उस आलम्बन में चित्त लगाता है। वह कामनाओं से रहित होकर...पूर्ववत्....प्रथम ध्यान को प्राप्त कर विहरता है।"( ) ७. जिसने पूर्वजन्म में भी (बुद्ध-) शासन में या ऋषि (बुद्ध-) प्रव्रज्या में प्रव्रजित होकर पृथ्वीकसिंण में चतुर्थ-पञ्चक ध्यानों को पहले ही प्राप्त कर लिया है, ऐसे पुण्यवान् उपनियसम्पन्न को (गोलाकार) न बनाये गये पृथ्वीकसिण में (जैसे कि) जोते हुए स्थान (खेत) में या खलमण्डल (खलिहान) में निमित्त उत्पन्न हो जाता है, मालक स्थविर के समान । उन आयुष्मान् को जोते गये स्थान को देखते हुए उस स्थान के प्रमाण (=आकार) का ही निमित्त उत्पन्न हुआ। उन्होंने उसका वर्धन कर ध्यानपञ्चक को प्राप्त कर, ध्यान के पदस्थान विपश्यना का अभ्यास कर अर्हत्त्व प्राप्त किया।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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