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विसुद्धिमग्ग इध,भिक्खवे, सेनासनं नातिदूर होति नाच्चासन्नं गमनागमनसम्पन्नं, दिवा अप्पाकिण्णं रत्तिं अप्पसदं अप्पनिग्घोसं, अप्पडंसमकसवातातपसरीसपसम्फस्सं होति, तस्मि खो पन सेनासने विहरन्तस्स अप्पकसिरेनेव उप्पज्जन्ति चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानपच्चयभेसज्जपरिक्खारा, तस्मि खो पन सेनासने थेरा भिक्खू विहरन्ति बहुस्सुता आगतागमा धम्मधरा विनयधरा मातिकाधरा, ते कालेन कालं उपसङ्कमित्वा परिपुच्छति परिपञ्हति- 'इदं, भन्ते, कथं, इमस्स को अत्थो?' ति, तस्स ते आयस्मन्तो अविवटं चेव विवरन्ति, अनुत्तानीकतं च उत्तानीकरोन्ति, अनेकविहितेसु च कट्ठानियेसु धम्मेसु कडं पटिविनोदेन्ति । एवं खो, भिक्खवे, सेनासनं पञ्चङ्गसमन्नागतं होती" (अं० ४-११०)ति।
अयं "समाधिभावनाय अननुरूपं विहारं पहाय
. अनुरूपे विहारे विहरन्तेना" ति एत्थ वित्थारो॥
खुद्दकपलिबोधा ४.खुद्दकपलिबोधुपच्छेदं कत्वा ति। एवं पतिरूपे विहारे विहरन्तेन ये पिस्स ते होन्ति खुद्दकपलिबोधा, ते पि उपच्छिन्दितब्बा। सेय्यथीदं-दीघानि केसनखलोमानि छिन्दितब्बानि। जिण्णचीवरेसु दळहीकम्मं वा तुन्नकम्मं वा कातब्बं । किलिट्ठानि वा रजितब्बानि । सचे पत्ते मलं होति, पत्तो पचितब्बो। मञ्चपीठादीनि सोधेतब्बानी ति।
अयं 'खुद्दकपलिबोधुपच्छेदं कत्या' ति एत्थ वित्थारो ।
भावनाविधिकथा ५. इदानि सब्बं भावनाविधानं अपरिहापेन्तेन भावेतब्बो ति। एत्थ अयं पथवीकसिणं आदि कत्वा सब्बकम्मट्ठानवसेन वित्थारकथा होति। एवं उपच्छिन्नखुद्दकपलिशयनासन पाँच अङ्गों से युक्त होता है? यहाँ, भिक्षुओ! १. (कोई-कोई) शयनासन न तो बहुत दूर होता है, न बहुत पास; आवागमन (की सुविधा) से सम्पन्न होता है; दिन में बहुत अधिक भीड़-भाड़ नहीं होती और रात में कोलाहल कम होता है, डंस, मच्छर, आँधी-तूफान, धूप, साँप-विच्छू आदि (सरीसृप) का उपद्रव कम होता है; २. उस शयनासन में विहार करने वाले को चीवर, भोजन, औषधि और पथ्य अनायास मिल जाया करते हैं; ३. उस शयनासन में स्थविर भिक्षु विहार करते हैं जो बहुश्रुत, आगमों में पारङ्गत, धर्मधर, विनयधर एवं मातृकाधर होते हैं। ४. उनके पास समय-समय पर जाकर
कर वह पछता है-"भन्ते, यह कैसे होता है? इसका क्या अर्थ है?" ५. उसके लिये वे आयुष्मान् ढंके हुए को उघाड़ देते हैं, अस्पष्ट को स्पष्ट कर देते है और शङ्का उत्पन्न करने वाले अनेक धर्मों के बारे में शङ्का दूर कर देते हैं। भिक्षुओ, इस प्रकार शयनासन पाँच अङ्गों से युक्त होता है।। (अं० ४-१००)
यह 'समाधि-भावना के अनुरूप विहार को त्यागकर
अनुरूप विहार करते हुए' वाक्यांश की व्याख्या है।। छोटे-छोटे (क्षुद्रक) पलिबोध
४. खुद्दकपलिबोधुपच्छेदं कत्वा- (छोटे-छोटे परिबोधों का नाश करके- पृ० १२५)-यों अनुरूप विहार में विहरते हुए जो इसके छोटे-छोटे पलिबोध भी हों, उनका भी नाश कर देना चाहिये। जैसे-बढ़े हुए केश, नख, लोमो को काट देना चाहिये । फटे चीवरों को सिलने या पैबन्द लगाने का काम कर लेना चाहिये। वे गन्दे हों तो उन्हें पुनः रँग लेना चाहिये। जो पात्र मैले हों उन्हें (साफ कर) रंग लेना चाहिये। चारपाई, चौकी आदि साफ कर लेनी चाहिये ।।
यह 'छोटे-छोटे परिबोधों का नाश करके की व्याख्या है।