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४. पथवीकसिणनिद्देस
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पण्णसालद्वारे ठत्वा गायि । सो निक्खमित्वा द्वारे अट्ठासि । सा गन्त्वा चङ्कमनसीसे गायि । थेरो चङ्कमनसीसं अगमासि । सा सतपोरिसे पपाते ठत्वा गायि । थेरो पटिनिवत्ति । अथ नं सा वेगेन गहेत्वा "मया, भन्ते, न एको न द्वे तुम्हादिसा खादिता" ति आह । (१७)
कल्याणमित्तानं अलाभो ति । यत्थ न सक्का होति आचरियं वा आचरियसमं वा उपज्झायं वा उपज्झायसमं वा कल्याणमित्तं लद्धुं । तत्थ सो कल्याणमित्तानं अलाभो महादोसो येवाति । इमेसं अट्ठारसन्नं दोसानं अञ्ञतरेन समन्नागतो अननुरूपो ति वेदितब्बो । (१८)
वृत्तं पिचेत्तं अट्ठकथासु
"महावासं नवावासं जरावासं च पन्थनिं । सोण्डिं पण्णं च पुप्फं च फलं पत्थितमेव च ॥ नगरं दारुना खेत्तं विभागेन पट्टनं । पच्चन्तसीमासप्पायं यत्थ मित्तो न लब्भति ॥ अट्टरसेतानि ठानानि इति विञ्ञाय पण्डितो । आरका परिवज्जेय्य मग्गं सप्पटिभयं यथा" ति ॥ अनुरूपविहारो
३. यो पन गोचरगामतो नातिदूरनाच्चासन्नतादीहि पञ्चहि अङ्गेहि सपन्नागतो, अयं अनुरूप नाम । वृत्तं तं भगवता - " कथं च, भिक्खवे, सेनासनं पञ्चङ्गसमन्नागतं होति ?
(१७) अनुपयुक्तता - विपरीतरूप (= स्त्री आदि) आलम्बनों के संयोग के कारण या अमनुष्यों (यक्ष आदि) के द्वारा परिगृहीत होने के कारण प्रतिकूलता ।
इस प्रसङ्ग में यह कथा है- कहते हैं कि एक स्थविर जङ्गल में रहते थे। उस समय एक यक्षिणी ने उनके द्वार पर खड़े होकर एक गीत गाया तो वे निकल कर द्वार पर आ खड़े हुए। तब उसने जाकर चंक्रमण (=स्थल) के छोर पर गाया। स्थविर चंक्रमणस्थल के छोर पर आये। फिर उसने सौ पोरसा गहरे (जल) प्रपात में खड़े होकर गाया। स्थविर लौटने लगे। तब उसने दौड़कर उन्हें पकड़ कर कहा—''भन्ते, मैंने तुम्हारे जैसे न एक, न दो को अर्थात् बहुतों को खाया है।"
(१८) कल्याणमित्रों का न मिलना- जहाँ आचार्य या आचार्य के समान उपाध्याय या उपाध्याय के समान कल्याणमित्रों को मिलना सम्भव न हो। उसमें भी कल्याणमित्रों का न मिलना तो महादोष ही है।
इन अट्ठारह दोषों में से किसी एक से भी युक्त स्थान को अनुपयुक्त जानना चाहिये ।। अट्ठकथाओं में यह कहा भी गया है
"महा आवास (= विहार), नव आवास, जीर्ण आवास, मार्ग के समीप वाला, सोण्डी, पत्ते, फूल, फल से युक्त, पर्वतशिखर पर स्थित, नगर के समीप, लकड़ियों के पास, खेत के पास, 1 , विरोधियों युक्त, यात्री विश्रामस्थल, सीमावर्ती देश, राज्य की सीमा पर स्थित, अननुकूल, जहाँ कल्याणमित्र न मिलें--इन अट्ठारह स्थानों को इस प्रकार दोष से युक्त जानकर पण्डितजन इनका भयावह मार्ग के समान दूर से ही परित्याग कर दें ।।
अनुरूप (अनुकूल ) विहार
३. जो (विहार) ' गोचर - ग्राम से न बहुत दूर, न बहुत पास' आदि पाँच अङ्गों से युक्त होता है, वह अनुरूप कहा जाता । क्योंकि भगवान् ने भी यह कहा है- "भिक्षुओ ! किस प्रकार का