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________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस १७३ १०. तस्मा वुत्तनयेनेव निसीदित्वा "अप्पस्सादा कामा" ति आदिना नयेन कामसु आदीनवं पच्चवेक्खित्वा कामनिस्सरणे सब्बदुक्खसमतिकमस्स उपायभूते नेक्खम्मे जाताभिलासेन बुद्ध-धम्म-सङ्कगुणानुस्सरणेन पीतिपामोजं जनयित्वा "अयं दानि सा सब्बबुद्ध-पच्चेकबुद्ध-अरियसावकेहि पटिपन्ना नेक्खम्मपटिपदा" ति पटिपत्तिया सञ्जातगारवेन "अद्धा इमाय पटिपदाय पविवेकसुखरसस्स भागी भविस्सामी"ति उस्साहं जनयित्वा समेन आकारेन चक्खूनि उम्मीलेत्वा निमित्तं गण्हन्तेन भावेतब्बं ।। ११. अतिउम्मीलयतो हि चक्खु किलमति, मण्डलं च अतिविभूतं होति, तेनस्स निमित्तं नुप्पज्जति। अतिमन्दं उम्मीलयतो मण्डलं अविभूतं होति, चित्तं च लीनं होति, एवं पि निमित्तं नुप्पज्जति। तस्मा, आदासतले मुखनिमित्तदस्सिना विय, समेन आकारेन चक्षूनि उम्मीलेत्वा निमित्तं गण्हन्तेन भावेतब्बं । नवण्णो पच्चवेक्खितब्बो, न लक्खणं मनसि कातब्बं । अपि च-वण्णं अमुञ्चित्वा निस्सयसवण्णं कत्वा उस्सदवसेन पण्णत्तिधम्मे चित्ते पट्ठपेत्वा मनसि कातब्बं । पथवी, मही, मेदिनी, भूमि, वसुधा, वसुन्धरा ति आदीसु पथवीनामेसुयं इच्छति, यदस्स सानुकूलं होति, तं वत्तब्बं । अपि च 'पथवी' ति एतदेव नामं पाकटं, तस्मा पाकटवसेनेव पथवी', 'पथवी' ति भावेतब्बं । कालेन उम्मीलेत्वा कालेन निम्मीलेत्वा आवज्जितब्बं । याव उग्गहनिमित्तं नुप्पजति, ताव कालसतं पि कालसहस्सं पि ततो भिय्यो पि एतेनेव नयेन भावेतब्बं। चौकी (पीठ) पर बैठना चाहिये। उससे अधिक दूर पर बैठने वाले के लिये कसिण समीप नहीं रह पाता; और उससे अधिक पास बैठने पर कसिण के दोष दिखायी देने लगते हैं। इसी तरह उससे अधिक ऊँचाई पर बैठने पर गर्दन झुका कर देखना पड़ता है या उससे अधिक नीचे बैठने पर घुटने दुखने लगते हैं। १०. अतः पूर्वोक्त विधि से साढ़े तीन हाथ वाले परिमाण के प्रदेश में चार बालिस्त चौड़े पीठ पर बैठकर "कामभोग अल्पस्वाद हैं" आदि प्रकार से कामनाओं के दोष का प्रत्यवेक्षण करते हुए, काम के निःसरण एवं समस्त दुःखों के समतिक्रमण के उपायस्वरूप निष्क्रमण (=ध्यान) के अभिलाषी को बुद्ध, धर्म, सङ्घ के गुण-स्मरणों द्वारा प्रीतिप्रामोदय उत्पन्न कर "यही वह सर्वबुद्ध, प्रत्येकबुद्ध, अर्हत्, श्रावकों द्वारा प्रतिपन्न निष्क्रमण मार्ग है"-यों विचार करते हुए प्रतिपत्ति के प्रति गौरव करते हुए "अवश्य ही इस प्रतिपत्ति से एकान्त सुख के रस का भागी बनूँगा" इस प्रकार उत्साह उत्पन्न कर, सामान्य ढंग से आँखें खोलकर निमित्त का ग्रहण करते हुए भावना करनी चाहिये। ११. क्योंकि अधिक खोलने से आँख थक जाती है, मण्डल भी बहुत अधिक स्पष्ट हो जाता है, इस लिये इसे निमित्त नहीं उत्पन्न होता । बहुत कम खोलने से मण्डल अस्पष्ट होता है और चित्त' भी अलसाया सा रहता है, अतः इस प्रकार भी निमित्त उत्पन्न नहीं होता। इसलिये दर्पण के तल में मुख की प्रतिच्छवि देखने वाले के समान, सामान्य ढंग से आँखें खोलकर निमित्त का ग्रहण करते हुए भावना करनी चाहिये। न वर्ण का प्रत्यवेक्षण करना चाहिये, न लक्षण को मन में लाना चाहिये । साथ ही, ध्यान में वर्ण को न छोड़ते हुए, आधार कसिण की वर्ण के अनुकूल भावना करते हुए प्रमुखतः प्रज्ञप्तिधर्म में चित्त को स्थापित कर मन में ले आना चाहिये । पृथ्वी, मही, मेदिनी, भूमि, वसुधा, वसुन्धरा आदि पृथ्वी के नामों में जिसे वह चाहे, जो उसकी संज्ञा (चेतना) के अनुकूल हो, उसका उच्चारण करना चाहिये। फिर भी 'पृथ्वी'-यही नाम सरल है, अतः सरलता के कारण 'पृथ्वी',
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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