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________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस १६७ यत्थ नानाविधं अम्बजम्बुपनसादिफलं होति, तत्थ फलत्थिका आगन्त्वा याचन्ति, अदेन्तस्स कुज्झन्ति, बलकारेन वा गण्हन्ति । सायन्हसमये विहारमझे चङ्कमन्तेन ते दिस्वा "किं, उपासका, एवं करोथा" ति वुत्ता यथारुचि अकोसन्ति। अवासाय पिस्स परक्कमन्ति।(८) पत्थनीये पन लेणसम्मते दक्खिणगिरि-हत्थिकुच्छि-चेतियगिरि-चित्तलपब्बतसदिसे विहारे विहरन्तं 'अयमरहा' ति सम्भावेत्वा वन्दितुकामा मनुस्सा समन्ता ओसरन्ति, तेनस्स न फासु होति। (९) यस्स पन तं सप्पायं होति, तेन दिवा अझत्र गन्त्वा रत्तिं वसितब्बं । नगरसन्निस्सिते विसभागारम्मणानि आपाथमागच्छन्ति, कुम्भदासियो पि घटेहि निघंसन्तियो गच्छन्ति, ओक्कमित्वा मग्गं न देन्ति, इस्सरमनुस्सा पि विहारमज्झे साणिं परिक्खिपित्वा निसीदन्ति। (१०) दारुसन्निस्सये पन यत्थ कट्ठानि च दब्बूपकरणरुक्खा च सन्ति, तत्थ कठ्ठहारिका पुब्बेवुत्तसाकपुप्फहारिका विय अफासुं करोन्ति, 'विहारे रुक्खा सन्ति, ते छिन्दित्वा घरानि करिस्सामा' ति मनुस्सा आगन्त्वा छिन्दन्ति। सचे सायन्हसमयं पधानघरा निक्खमित्वा विहारमझे चङ्कमन्तो ते दिस्वा “किं उपासका एवं करोथा" ति वदति, यथारुचि अक्कोसन्ति, अवासाय पिस्स परकमन्ति। (११) __ यो पन खेत्तसन्निस्सितो होति समन्ता खेत्तेहि परिवारितो, तत्थ मनुस्सा (७) पुष्प- जहाँ नाना प्रकार के लता-गुल्म फूले हुए होते हैं, वहाँ भी उक्त प्रकार का उपद्रव होता है। (८) फल- जहाँ अनेक प्रकार के आम, जामुन, कटहल आदि फल वृक्ष होते हैं, वहाँ फल चाहने वाले आकर माँगते हैं, न देने पर क्रुद्ध होते हैं या बलपूर्वक ले लेते हैं। सायंकाल जब वह विहार के बीच चंक्रमण करते हुए, उन्हें देखकर-'उपासको! ऐसा क्यों कर रहे हो' कहता है तो वे उसे मन से कोसते हैं। उसे उस विहार से हटा देने का भी प्रयत्न करते हैं। (९) पर्वत-स्थल में- दक्षिणगिरि, हस्तिकुक्षि, चैत्यगिरि, चित्तल पर्वत जैसी गुफाओं के समान (बने) विहार में साधना करने वाले को 'यह अर्हत् है' इस सम्भावना से, प्रणाम करने की इच्छा वाले लोग चारों ओर से आते हैं, जिससे उसकी साधना में असुविधा होती है। किन्तु जिसके लिये यह सुविधाजनक हो उसे, दिन में अन्यत्र जाकर, रात में ऐसे स्थान पर रहना चाहिये। (१०) नगर के समीप (विहार में)- विपरीत आलम्बन (-स्त्री आदि) मार्ग में आ जाते हैं। घड़ा लेकर चलने वाली दासियाँ (=पनिहारिने) भी घड़ों से रगड़ती हुई जाती हैं, बीच में आकर उसे मार्ग नहीं देतीं । ऐश्वर्यवाली पुरुष विहार के बीच टाट बिछाकर बैठ जाते हैं। (११) लकड़ियों के पास-जहाँ लकड़ियाँ और लकड़ी के सामान बनाने योग्य वृक्ष होते हैं, लकड़हारिने पूर्वोक्त साग और फूल तोड़ने वालियों के ही समान असुविधा उत्पन्न करती हैं, 'विहार में वृक्ष हैं, उन्हें काटकर घर बनायेंगे' ऐसा सोचकर मनुष्य आकर वृक्ष काटते हैं। यदि सायङ्काल समाधि-कक्ष से निकलकर विहार के बीच चंक्रमण करते हुए उन्हें देखकर वह-'उपासको, ऐसा क्यों करते हो'-ऐसा कहता है, तो वे उसे जैसे मन में आता है वैसे कोसते हैं, उसे वहाँ से हटाने का भी प्रयत्न करते हैं।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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