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________________ १६६ विसुद्धिमग्ग यत्थ पन भिक्खू एवं वदन्ति-"आयस्मा यथासुखं समणधम्मं करोतु, मयं नवकम्म करिस्सामा" ति, एवरूपे विहातब्बं ।। जिण्णविहारे पन बहु पटिजग्गितब्बं होति, अन्तमसो अत्तनो सेनासनमत्तं पि अपटिजग्गन्तं उज्झायन्ति, पटिजग्गन्तस्स कम्मट्ठानं परिहायति। (३) __पन्थनिस्सिते महापथविहारे रतिन्दिवं आगन्तुका सन्निपतन्ति। विकाले आगतानं अत्तनो सेनासनं दत्वा रुक्खमूले वा पासाणपिढे वा वसितब्बं होति, पुनदिवसे पि एवमेवा ति कम्मट्ठानस्स ओकासो न होति। यत्थ पन एवरूपो आगन्तुकसम्बाधो न होति, तत्थ विहातब्बं । (४) सोण्डी नाम पासाणपोक्खरणी होति। तत्थ पानीयत्थं महाजनो समोसरति, नगरवासीनं राजकुलूपकत्थेरानं अन्तेवातिका रजनकम्मत्थाय आगच्छन्ति, तेसं भाजनदारुदोणिकादीनि पुच्छन्तानं असुके च असुके च ठाने ति दस्सेतब्बानि होन्ति, एवं सब्बकालं पि निच्चब्यावटो होति । (५) यत्थ नानाविधं साकपण्णं होति, तत्थस्स कम्मट्ठानं गहेत्वा दिवाविहारं निसिन्नस्सा पि सन्तिके साकहारिका गायमाना पण्णं उच्चिनन्तियो विसभागसद्दसङ्घट्टनेन कम्मट्ठानन्तरायं करोन्ति। (६) यत्थ पन नानाविधा मालागच्छा सुपुप्फिता होन्ति, तत्रा पि तादिसो येव उपद्दवो।(७) अन्य भिक्षु क्रोध करते हैं। किन्तु जहाँ भिक्षु ऐसा कहते हो-"आयुष्मन्! सुखपूर्वक श्रमण धर्म का पालन करें, यह निर्माण कार्य हम कर लेंगे तो ऐसे नवविहार में रहना चाहिये। (३) जीर्ण-शीर्ण विहार में सुधारने के लिये बहुत-कुछ हुआ करता है। जो भिक्षु कम से कम अपने शयनासन तक का सुधार नहीं करता, उस पर अन्य भिक्षु क्रोध करते हैं। सुधार करने पर कर्मस्थान की हानि होती है। (४) मार्ग के समीप- मुख्य मार्ग के पास वाले विहार में रात-दिन आगन्तुक आया करते हैं। असमय में आने वालों को अपना शयनासन देकर पेड़ के नीचे या किसी प्रस्तर-शिला पर रहना पड़ता है। हो सकता है दूसरे दिन भी ऐसा ही हो जाय । इस प्रकार कर्मस्थान के लिये समय नहीं बच पाता। किन्तु जहाँ इस प्रकार आगन्तुकों की भीड़-भाड़ न हो, वहाँ रहना चाहिये। (५) सोण्डी- पाषाण-पुष्करिणी (=पहाड़ी प्राकृतिक जलाशय) को ‘सोण्डी' कहते हैं। वहाँ जल के लिये बहुत से लोग आते रहते हैं, नगरवासी या राजघरानों द्वारा प्रश्रयप्राप्त स्थविरो के शिष्यगण वस्त्रों की रँगाई के लिये आते हैं। जब ये पूछते हैं कि बर्तन, लकड़ी, द्रोणिका ( रँगाई के लिये कुण्डी) आदि कहाँ है? तब उन्हें 'यहाँ है, वहाँ हैं इस प्रकार दिखलाना पड़ता है। इस प्रकार वह लोगों से निरन्तर घिरा रहता है। (६) पत्र- जहाँ अनेक प्रकार के साग-पात के पौधे होते हैं, वहाँ जब यह भिक्षु कर्मस्थान ग्रहण कर दिन में साधना के लिये बैठता है, तब भी उसके आस-पास साग तोड़ने वाली स्त्रियाँ गाती हुई, पत्ते तोड़ती हुई विपरीत (स्त्रियों का दर्शन, शब्द-श्रवण आदि भिक्षु के लिये अनुपयुक्त=विपरीत) शब्दों से कर्मस्थान में विघ्न करती है। १.जीर्ण विहार में भी जहाँ भिक्षु इस प्रकार कहते हों- "आयुष्मन! सुखपूर्वक श्रमणधर्म का पालन करें, हम सुधार कर लेगे" तो , ऐसे में रहना चाहिये-यह भी विधि प्राप्त होती है, परन्तु पहले कह दी जाने से यहाँ नही कही गयी। - अनु०।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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