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________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस १६५ नगरसन्निस्सितता, दारुसन्निस्सितता, खेत्तसन्निस्सितता, विसभागानं पुग्गलानं अत्थिता, पट्टनसन्निस्सितता, पच्चन्तसन्निस्सितता, रजसीमसन्निस्सितता, असप्पायता, कल्याणमित्तानं अलाभो ति इमेसं अट्ठारसन्नं दोसानं अञतरेन दोसेन समन्नागतो अननुरूपो नाम, न तत्थ विहातब्बं। कस्मा? महाविहारे ताव बहू नानाछन्दा सन्निपतन्ति। ते अञमञ्ज पटिविरुद्धताय वत्तं न करोन्ति, बोधियङ्गणादीनि असम्मट्ठानेव होन्ति, अनुपट्ठापितं पानीयं परिभोजनीयं । तत्रायं 'गोचरगामं पिण्डाय चरिस्सामा' ति पत्तचीवरं आदाय निक्खन्तो सचे पस्सति वत्तं वा अकतं, पानीयघटं वा रित्तं, अथानेन वत्तं कातब्बं होति, पानीयं उपट्ठापेतब्बं । अकरोन्तो वत्तभेदे दुष्कटं आपज्जति, करोन्तस्स कालो अतिक्कमति, अतिदिवा पविट्ठो निट्ठिताय भिक्खाय किञ्चि न लभति। पटिसल्लानगतो पि सामणेरदहरभिक्खूनं उच्चासद्देन सङ्घकम्मेहि च विक्खिपति । (१) ___ यत्थ पन सब्बं वत्तं कतमेव होति, अवसेसा पि च सङ्घटना नत्थि। एवरूपे महाविहारे पि विहातब्बं। - नवविहारे बहु नवकम्मं होति, अकरोन्तं उज्झायन्ति। (२) के समीप होना, (५) प्याऊ, (६) पत्ते, (७) फूल, (८) फल के समीप होना, (९) पर्वत-शिखर पर होना'. (१०) नगर के समीप होना, (११) काठ (ऐसे वृक्ष जिनसे ईंधन प्राप्त होता है) के समीप होना, (१२) खेत के समीप होना, (१३) बेमेल (=विरोधी) व्यक्तियों का होना,(१४) यात्रियों के विश्रामस्थल के पास होना, (१५) म्लेच्छ (गन्दे लोगों के) देश के पास होना, (१६) राज्य की सीमा के पास होना, (१७) अननुकूलता एवं (१८) कल्याणमित्रों का न मिलना । इन अट्ठारह दोषों में से किसी से भी युक्त विहार अननुरूप कहा जाता है। वहाँ साधनाभ्यास नहीं करना चाहिये। किसलिये? (१) महाविहार में बहुत से नाना प्रकार की अभिरुचियों वाले लोग रहते हैं। वे पारस्परिक विरोध के चलते करणीय (विहार में चैत्य और बोधिवृक्ष के पास झाडू लगाना, घड़े में जल रखना आदि) नहीं करते। बोधि वृक्ष के आँगन आदि विना झाड़े-बुहारे ही रह जाते हैं, नहाने-धोने का जल भी नहीं भरा गया रहता है। ऐसी स्थिति में वहाँ 'गोचर (=जहाँ भिक्षा माँगनी हो, ऐसे) ग्राम में भिक्षाटन करूँगा' इस प्रकार सोचकर निकलते हुए यदि वह देखता है कि करणीय नहीं किया गया है या जल का घड़ा खाली पड़ा है, तो उसे वह करणीय करना पड़ता है, जल भरना पड़ता है। न करने पर व्रतभङ्ग होने से दुष्कृत (-दुक्कट) होता है; और करने पर समय अतिक्रान्त जाता है। दिन चढ़े ग्राम में प्रवेश करने पर भिक्षा में कुछ नहीं मिलता। एकान्त में ध्यान करते समय भी श्रामणेरों और तरुण भिक्षुओं के जोर जोर से बोलने और सह के कार्यों से उसका चित्त विक्षिप्त होता है। किन्तु जहाँ सभी करणीय पूरे कर लिये जाते हों और जहाँ विक्षोभ के अन्य कारण भी न हों, ऐसे महाविहार में ही रहना चाहिये। (२) नव (निर्मित) विहार में बहुत से निर्माण-कर्म करने पड़ते हैं। जो नहीं करता उस पर १. पत्थ' का परम्पराप्राप्त अर्थ है पर्वतशिखर। देखें अभि० प०. पृष्ठ १०८। किन्तु भिक्षु ज्ञानमौलि ने 'पत्थनीयता' का अर्थ 'प्रसिद्धि किया है एवं भिक्ष धर्मरक्षित ने 'पूजनीय स्थान |-अनु० -
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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