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________________ पथवीकसिणनिद्देसो (चतुत्थो परिच्छेदो) १. इदानि यं वृत्तं " समाधिभावनाय अननुरूपं विहारं पहाय अनुरूपे विहारे विहरन्तेना" ति एत्थ यस्स ताव आचरियेन सद्धिं एकविहारे वसतो फासु होति, तेन तत्थेव कम्मट्ठानं परिसोधेन्तेन वसितब्बं । सचे तत्थ फोसु न होति, यो अञ्ञो गावुते वा अड्ढयोजने वा योजनमत्ते पि वा सप्पायो विहारो होति, तत्थ वसितब्बं । एवं हि सति कम्मट्ठानस्स किस्मिञ्चिदेव ठाने सन्देहे वा सतिसम्मोसे वा जाते कालस्सेव विहारे वत्तं कत्वा अन्तरामग्गे पिण्डाय चरित्वा भत्तकिच्चपरियोसाने येव आचरियस्स वसनट्ठानं गन्त्वा तं दिवसं आचरियस्स सन्तिके कम्मट्ठानं सोधेत्वा दुतियदिवसे आचरियं वन्दित्वा निक्खमित्वा अन्तरामग्गे पिण्डाय चरित्वा अकिलमन्तो येव अत्तनो वसनट्ठानं आगन्तुं सक्खिस्सति । यो पन योजनप्पमाणे पिफासुकट्ठानं न लभति, तेन कम्मट्ठाने सब्बं गण्ठिट्ठानं छिन्दित्वा सुविसुद्धं आवज्जनपटिबद्धं कम्मट्ठानं कत्वा दूरं पि गन्त्वा समाधिभावनाय अननुरूपं विहारं पहाय अनुरूपे विहारे विहातब्बं । अननुरूपविहारो २. तत्थ अननुरूपो नाम अट्ठारसन्नं दोसानं अञ्ञतरेन समन्नागतो । तत्रिमे अट्ठारस दोसा - महत्तं, नवत्तं, जिण्णत्तं, पन्थनिस्सितत्तं, सोण्डी, पण्णं, पुष्पं, फलं, पत्थनीयता, पृथ्वीकसिणनिर्देश (चतुर्थ परिच्छेद) १. अब, पीछे जो कहा गया है कि 'समाधि भावना के अननुरूप (प्रतिकूल ) विहार को छोड़कर अनुरूप विहार में विहरते हुए' (पृष्ठ १२५) यहाँ जिस जिस को आचार्य के साथ एक ही विहार में रहने आदि की सुविधा तथा अनुकूलता हो, उसे वहीं कर्मस्थान का परिशोधन करते हुए रहना चाहिये । यदि वहाँ सुविधा न हो तो गव्यूति', अर्धयोजन या एक योजन के अन्दर जो भी अनुकूल विहार हो वहाँ रहना चाहिये। ऐसा होने से कर्मस्थान के किसी भी स्थल के विषय में सन्देह या विस्मृति उत्पन्न होने पर समय रहते ही विहार में करणीय करके, बीच मार्ग में आने वाले ग्रामादि में भिक्षाटन करते हुए भोजन समाप्त कर, आचार्य के निवासस्थान पर जाकर उस दिन आचार्य के पास कर्मस्थान का शोधन कर, दूसरे दिन आचार्य की वन्दना करके विहार से निकलकर मार्ग में भिक्षाटन करते हुए, वह विना थके ही अपने निवासस्थान पर पहुँच सकेगा । यदि एक योजन के भीतर भी सुविधाजनक स्थान न मिले तो उसे कर्मस्थान के विषय में सभी दुरूह स्थलों का स्पष्टीकरण कर ( = ग्रन्थिस्थान को काटकर ) कर्मस्थान को सुविशुद्ध एवं आवर्जनप्रतिबद्ध (समाधि की अनुकूलता के लिये स्वानुरूप) करके दूर जाकर भी समाधि भावना के अननुकूल विहार को छोड़कर अनुरूप विहार में साधनाभ्यास करना चाहिये । अननुरूप (=वास के लिये अयोग्य) विहार २. उनमें 'अननुरूप विहार' उसे कहते हैं जो अट्ठारह दोषों में से किसी एक से युक्त हो । अट्ठारह दोष ये हैं- (१) बड़ा होना, (२) नया होना, (३) जीर्ण (= पुराना टूटा-फूटा ) होना, (४) मार्ग १. अभिधानप्पदीपिका कोश के अनुसार 'गव्यूति' ५६०० गज (एक भूमि - माप) को कहते हैं ।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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