________________
३. कम्मट्ठानग्गहणनिद्देस
१६३ भावनानयो, दुविधं निमित्तं, दुविधो समाधि, सत्तविधं सप्पायासप्पायं, दसविधं अप्पनाकोसल, विरियसमता, अप्पनाविधानं ति इमे नव आकारा कथेतब्बा। सेसकम्मट्ठानेसु पि तस्स तस्स अनुरूपं कथेतब्बं । तं सब्बं तेसं भावनाविधाने आविभविस्सति।
एवं कथियमाने पन कम्मट्ठाने तेन योगिना निमित्तं गहेत्वा सोतब्बं ।
४१. निमित्तं गहेत्वा ति। इदं हेट्ठिमपदं, इदं उपरिमपदं, अयमस्स अत्थो, अयमधिप्पायो, इदमोपम्मं ति एवं तं तं आकारं उपनिबन्धित्वा ति अत्थो। एवं निमित्तं गहेत्वा सक्कच्चं सुणन्तेन हि कम्मट्ठानं सुगहितं होति। अथस्स तं निस्साय विसेसाधिगमो सम्पज्जति, न इतरस्सा ति।
अयं "गहेत्वा" ति इमस्स पदस्स अत्थपरिदीपना। एत्तावता कल्याणमित्तं उपसङ्कमित्वा अत्तनो चरियानुकूलं चत्तालीसाय कम्मट्ठानेसु अञ्जतरं कम्मट्ठानं गहेत्वा ति इमानि पदानि सब्बाकारेन वित्थरितानि होन्ती ति॥
इति साधुजनपामोजत्थाय कते विसुद्धिमग्गे समाधिभावनाधिकारे
कम्मट्ठानग्गहणनिहेसो नाम ततियो परिच्छेदो॥
की भावनाविधि, ४. द्विविध निमित्त, ५. द्विविध समाधि, ६. सप्तविध अनुकूल-प्रतिकूल, ७. दशविध अर्पणाकौशल, ८. वीर्यसमता एवं ९. अर्पणाविधान-ये नौ (९) आकार (=पक्ष) बतलाने चाहिये।
शेष कर्मस्थानों को भी उन उन की अनुकूल विधि से बतलाना चाहिये। यह सब आगे भावनाविधान प्रकरण में स्पष्ट किया जायेगा।
किन्तु जब कर्मस्थान बतलाया जा रहा हो, तब योगी को निमित्त का ग्रहण कर सुनना चाहिये।
४१. निमित्त का ग्रहण कर के- अर्थात् 'यह पहले का पद है', 'यह आगे का पद है', 'इसका यह अर्थ है', 'यह अभिप्राय है', 'यह उपमा है'-इस प्रकार प्रत्येक पक्ष को सम्बद्ध करकेइस प्रकार निमित्त का ग्रहण कर, आदर के साथ सुनने से कर्मस्थान का सम्यक्तया ग्रहण होता है। तब उसी के सहारे उसे विशिष्टता की प्राप्ति (विशेषाधिगम) होती है, दूसरे को नहीं ||
यह 'गहेत्वा' -इस पद का व्याख्यान है। यहाँ तक पीछे पालि पाठ में आये कल्याणमित्तं उपसङ्कमित्वा अत्तनो चरियानुकूलं चतालीसाय कम्मट्ठानेसु अतरं कम्मट्ठानं गहेत्वा- इन पदों की सभी पक्षों से व्याख्या कर दी गयी।।
साधुजनों के प्रमोदहेतु विरचित इस विशुद्धिमार्ग ग्रन्थ के
समाधिभावनाधिकार में 'कर्मस्थानग्रहणनिर्देश' तृतीय परिच्छेद समाप्त॥