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________________ १६२ विशुद्धिमग्ग बोधिसत्ता घरावासे दोसदस्साविनो । पविवेकज्झासया च बोधिसत्ता सङ्गणिकाय दोसदस्साविनो । निस्सरणज्झासया च बोधिसत्ता सब्बभवगतीसु दोसदस्साविनो " ति । ये हि केचि अतीतानागतपच्चुप्पन्ना सोतापन्नसकदागामि अनागामिखीणासवपच्चेकबुद्धसम्मासम्बुद्धा, सब्बे ते इमेहेव छहाकारेहि अत्तना अत्तना पत्तब्बं विसेसं पत्ता । तस्मा इमेहि छहाकारेहि सम्पन्नज्झासयेन भवितब्बं । तदधिमुत्तताय पन अधिमुत्तिसम्पन्नेन भवितब्बं । समाधाधिमुत्तेन समाधिगरुकेन समाधिपब्भारेन, निब्बानाधिमुत्तेन निब्बानगरुकेन निब्बानपब्भारेन च भवितब्बं ति अत्थो । ३९. एवं सम्पन्नज्झासयाधिमुत्तिनो पनस्स कम्मट्ठानं याचतो चोतेपरियंत्राणलाभिना आचरियेन चित्ताचारं ओलोकेत्वा चरिया जानितब्बा । इतरेन किं चरितोसि ? के वा ते धम्मा बहुलं समुदाचरन्ति ? किं वा ते मनसिकरोतो फासु होति ? कतरस्मि वा ते कम्मट्ठा चित्तं नमी ? ति एवमादीहि नयेहि पुच्छित्वा जानितब्बा । एवं ञत्वा चरियानुकूलं कम्मट्ठानं कथेब्बं । ४०. कथेन्तेन च तिविधेन कथेतब्बं - १. पकतिया उग्गहितकम्मट्ठानस्स एकं द्वे निसज्जानि सज्झायं कारेत्वा दातब्बं । २. सन्तिके वसन्तस्स आगतागतक्खणे कथेतब्बं । ३. उग्गहेत्वा अञ्ञत्र गन्तुकामस्स नातिसङ्घित्तं नातिवित्थारिकं कत्वा कथेतब्बं । तत्थ पथवीकसिणं ताव कथेन्तेन चत्तारो कसिणदोसा, कसिणकरणं, कतस्स प्रव्रज्या) अध्याशय से सम्पन्न बोधिसत्त्व गृहवास में ५ प्रविवेक (एकान्तसेवन) अध्याशय से बोधिसत्व समाज में एवं ६. निःसरण अध्याशय से बोधिसत्त्व सभी भवगतियों में दोष देखते हैं। जो कोई भी अतीत, अनागत एवं प्रत्युत्पन्न स्त्रोत्तआपन्न, सकृदागामी, अनागामी, क्षीणास्रव, प्रत्येकबुद्ध, सम्यक्सम्बुद्ध हैं; उन सबने इन्हीं छह आकारों से अपने अपने प्राप्तव्यविशेष को पाया । इसलिये इन छह आकारों से अध्याशयसम्पन्न होना चाहिये । 'अधिमुक्ति से' का अर्थ यह है कि अधिमुक्ति से सम्पन्न होना चाहिये । समाधि के प्रति अधिमुक्ति, उसके प्रति गौरव, झुकाव, निर्वाण के प्रति अधिमुक्ति, व गौरव उसके प्रति झुकाव रखना चाहिये । ३९. इस प्रकार अध्याशय - अधिमुक्ति के सम्पादक साधक द्वारा कर्मस्थान की याचना की जाने पर चेत: पर्याय - ज्ञान के लाभी आचार्य को उसकी चित्तवृत्ति का अवलोकन कर चर्या जाननी चाहिये । अन्य को 'तुम्हारा क्या चरित है?' 'कौन से धर्म तुममें बहुधा प्रवृत्त होते हैं?' 'तुम्हें किसे मन में लाना अच्छा लगता है?' 'तुम्हारे चित्त का झुकाव किस कर्मस्थान के प्रति है?' आदि प्रकार से पूछ कर जानना चाहिये । यों जानकर चर्या के अनुकूल कर्मस्थान बतलाना चाहिये । ४०. कर्मस्थान कहने वाले को उसे तीन प्रकार से कहना चाहिये- १. जिसने स्वयं ही कर्मस्थान सीख लिया हो, उसे एक-दो बैठक में पारायण करवा कर कर्मस्थान दे देना चाहिये। (यहाँ यह ध्यातव्य है कि आचार्य से ग्रहण किये विना इस विषय में सफलता नहीं मिलती) । २. जो समीप ही रहने वाला हो, वह जब जब आये तब तब बतलाना चाहिये । ३. जो ग्रहण करके कहीं और जाना चाहता उसे न तो बहुत संक्षेप में और न ही बहुत विस्तार से बतलाना चाहिये । पृथ्वीकसिण बतलाने वाले को १ चार कसिण-दोष, २ कसिण का निर्माण, ३, किये हुए
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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