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________________ ३. कम्महानग्गहणनिद्देस १६१ वा धम्मेन वा न सङ्गण्हाति, गूळ्हं गन्थं न सिक्खापेति। सो इमं दुविधं सङ्गं अलभन्तो सासने पतिटुं न लभति, न चिरस्सेव दुस्सील्यं वा गिहिभावं वा पापुणाति । निय्यातितत्तभावो पन नेव अतज्जनीयो होति, न येनकामङ्गमो, सुवचो आचरियायत्तवृत्ति येव होति। सो आचरियतो दुविधं सङ्गहं लभन्तो सासने वुट्टि विरूळिंह वेपुल्लं पापुणाति चूळपिण्डपातिकतिस्सत्थेरस्स अन्तेवासिका विय। थेरस्स किर सन्तिकं तयो भिक्खू आगमंसु। तेसु एको "अहं, भन्ते, तुम्हाकमत्थाया" ति वुत्ते 'सतपोरिसे पपाते पतितुं उस्सहेय्यं' ति आह। दुतियो "अहं, भन्ते, तुम्हाकमत्थाया" ति वुत्ते 'इमं अत्तभावं गण्हितो पट्ठाय पासाणपिट्टे घंसेन्तो निरवसेसं खेपेतुं उस्सहेय्यं' ति आह। ततियो "अहं, भन्ते, तुम्हाकमत्थाया" ति वुत्ते "अस्सासपस्सासे उपरुन्धित्वा कालकिरियं कातुं उस्सहेय्यं" ति आह । थेरो "भब्बा वतिमे भिक्खू" ति कम्मट्ठानं कथेसि। ते तस्स ओवादे ठत्वा तयो पि अरहत्तं पापुणिंसू ति अयमानिसंसो अत्तनिय्यातने। तेन वुत्तं-"बुद्धस्स वा भगवतो आचरियस्स वा अत्तानं निय्यातेत्वा" ति। ३८. सम्पन्नज्झासयेन सम्पन्नाधिमुत्तिना च हुत्वा ति। एत्थ पन तेन योगिना अलोभादीनं वसेन छहाकारेहि सम्पन्नज्झासयेन भवितब्बं । एवं सम्पन्नज्झासयो हि तिस्सन्नं बोधीनं अञ्जतरं पापुणाति । यथाह-"छ अज्झासया बोधिसत्तानं बोधिपरिपाकाय संवत्तन्ति, अलोभज्झासया च बोधिसत्ता लोभे दोसदस्साविनो। अदोसज्झासया च बोधिसत्ता दोसे दोसदस्साविनो। अमोहज्झासया च बोधिसत्ता मोहे दोसदस्साविनो। नेक्खम्मज्झासया च होता। अथवा यथेच्छाचारी होता है, आचार्य से विना पूछे जहाँ चाहता है, वहाँ चला जाता है। उसे आचार्य भौतिक वस्तुएँ या धर्म का उपदेश नहीं देता, गूढ ग्रन्थों की शिक्षा नहीं देता। वह ये दोनों संग्रह न पाकर शासन में प्रतिष्ठालाभ नहीं कर पाता, अपितु शीघ्र ही दुराचारी या गृहस्थ हो जाता है। समर्पित कर देने से कभी भी दोष दिखलाने योग्य नहीं होता, न यथेच्छाचारी होता है, न उसे आसानी से कुछ कहा जा सकता है, वह आचार्य के अधीन ही रहने वाला होता है। वह आचार्य से द्वितीय संग्रह प्राप्त कर चूळपिण्डपातिक तिष्य स्थविर के शिष्यों के समान, शासन में वृद्धिविस्तार और विपुलता प्राप्त करता है। स्थविर के समीप तीन भिक्षु आये। उनमें से एक ने कहा-"भन्ते, 'आपके हित में है' (आचार्य के हित में हैं) ऐसा कहे जाने पर मैं सौ पोरसा गहरे प्रपात में गिरने के लिये तैयार हूँ।" दूसरे ने कहा-"भन्ते, 'आपके हित में है'-ऐसा कहे जाने पर मैं अपना एड़ी से लेकर पूरे का पूरा शरीर पत्थर की चट्टान से घिस-घिसकर समाप्त कर देने के लिये तैयार हूँ।" तीसरे कहा-"भन्ते, 'आपके हित में है'- ऐसा कहे जाने पर "मैं श्वास-प्रश्वास को रोकर मर जाने के लिये तैयार हूँ।" स्थविर ने "ये भिक्षु निश्चित रूप से उन्नति करेंगे"-ऐसा सोचकर कर्मस्थान बतलाया । इसीलिये कहा गया है-"भगवान् बुद्ध के लिये या आचार्य के लिये स्वयं को समर्पित करके।" ३८. अध्याशय और अधिमुक्ति से सम्पन्न होकर- उस योगी को अलोभ आदि छह आकारों में अध्याशयसम्पन्न होना चाहिये। इस प्रकार का अध्याशयसम्पन्न तीन ज्ञानो में से किसी एक को प्राप्त करता है। जैसा कि कहा गया है-"छह अध्याशय बोधिसत्त्वों के बोधि-परिपाक के लिये होते हैं। १. अलोभ अध्याशय से सम्पन्न बोधिसत्त्व लोभ में दोष देखते हैं । २. अद्वेष अध्याशय से सम्पन्न बोधिसत्त्व देष में और ३ अमोह अध्याशय से सम्पन्न बोधिसत्त्व मोह ने दोष देखते है । ४ नैष्कर्मा (-गृहत्यागयुक्त
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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