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विसुद्धिमग्ग ३५. गहेत्वा ति।इमस्स पन पदस्स अयमत्थदीपना-"तेन योगिना कम्मट्ठानदायकं कल्याणमित्तं उपसङ्कमित्वा" ति एत्थ वुत्तनयेनेव वुत्तप्पकारं कल्याणमित्तं उपसङ्कमित्वा, बुद्धस्स वा भगवतो, आचरियस्स वा अत्तानं निय्यातेत्वा सम्पन्नज्झासयेन सम्पन्नाधिमुत्तिना च हुत्वा कम्मट्ठानं याचितब्बं ।
__३६. तत्र "इमाहं भगवा अत्तभावं तुम्हाकं परिच्चजामी" ति एवं बुद्धस्स भगवतो अत्ता निय्यातेतब्बो। एवं हि अनिय्यातेत्वा पन्तेसु सेनासनेसु विहरन्तो भेरवारम्मणे आपाथमागते सन्थम्भितुं असक्कोन्तो गामन्तं ओसरित्वा गिहीहि संसट्ठो हुत्वा अनेसनं आपज्जित्वा अनयब्यसनं पापुणेय्य । निय्यातितत्तभावस्स पनस्स भेरवारम्मणे आपाथमागते पि भयं न उप्पज्जति। "ननु तया, पण्डित, पुरिममेव अत्ता बुद्धानं निय्यातितो"ति पच्चवेक्खतो पनस्स सोमनस्समेव उप्पजति।
यथा हि पुरिसस्स उत्तमं कासिकवत्थं भवेय्य । तस्स तस्मि मूसिकाय वा कीटेहि वा खादिते उप्पजेय्य दोमनस्सं। सच पन तं अचीवरकस्स भिक्खुनो ददेय्य, अथस्स तं तेन भिक्खुना खण्डाखण्डं करियमानं दिस्वा पिसोमनस्समेव उप्पज्जेय्य। एवंसम्पदमिदं वेदितब्बं ।
३७. आचरियस्य निय्यातेन्तेना पि"इमाहं, भन्ते, अत्तभावं तुम्हाकं परिच्चजामी" ति वत्तब्बं । एवं अनिय्यातितत्तभावो हि अतज्जनीयो वा होति दुब्बचो वा अनोवादकरो, येनकामनमो वा आचरियं अनापुच्छा व यत्थिच्छति तत्थ गन्ता । तमेनं आचरियो आमिसेन बतला दिये गये हैं। इसलिये शब्दमात्र में अभिनिवेश न कर, सर्वत्र अभिप्राय का अन्वेषण करना चाहिये।
यह "कर्मस्थान को ग्रहण करके"-इस वाक्यांश में कर्मस्थान का व्याख्यात्मक वर्णन है।। ३५. ग्रहण कर के- इस पद का अभिप्राय यह है-"उस योगी को कर्मस्थानप्रदाता कल्याणमित्र के पास जाकर" इस प्रकार से कही गयी विधि के अनुसार ही उक्त प्रकार के कल्याणमित्र के पास जाकर, भगवान् बुद्ध या आचार्य के प्रति स्वयं को समर्पित कर सच्चे अध्याशय एवं सच्ची अधिमुक्ति के साथ कर्मस्थान की याचना करनी चाहिये।
३६. वहाँ "भगवान्, यह मैं आपके लिये आत्माव का परित्याग करता हूँ"-इस प्रकार से भगवान् बुद्ध के लिये स्वयं को समर्पित कर देना चाहिये । इस प्रकार समर्पित न करने पर सुदूरवर्ती शयनासनों में विहार करते समय यदि भयानक आलम्बन सामने आ जाय, तो वह स्थिर नहीं रह पायेगा। एवं सम्भव है कि वह ग्राम में लौटकर गृहस्थों के संसर्ग में पड़कर साधन में अनुचित अन्वेषण करते हुए विनाश को प्राप्त हो जाय । यदि वह समर्पित हो जाता है तो भयानक आलम्बनों के सामने आ जाने पर भी भय नहीं उत्पन्न होगा, अपितु "पण्डित! क्या तुमने पहले ही स्वयं को बुद्ध के लिये समर्पित नहीं कर दिया है"-ऐसा विचार करते हुए उसका उसमें सौमनस्य ही उत्पन्न होगा।
जैसे कि किसी व्यक्ति के पास काशी का बना उत्तम वस्त्र हो, यदि उसे चूहे या कीड़े खा डालें तो उसे दुःख होगा; किन्तु वह उसे ऐसे भिक्षु को दे दे जिसके पास चीवर न हो तो उस वस्त्र को भिक्षु के द्वारा टुकड़े-टुकड़े किया जाता हुआ देखकर भी उसे प्रसन्नता ही होगी। यहाँ भी ऐसा ही है।
३७. आचार्य के लिये समर्पित होने वाले को भी "भन्ते! यह मैं आपके लिये आत्मभाव का परित्याग करता हूँ"-"इस प्रकार कहना चाहिये। इस प्रकार से समर्पित न होने पर दोष दिखलाने . योग्य (=तर्जनीय) नहीं होता, या उसे सरलता से कुछ कहा नहीं जा सकता, वह आज्ञाकारी नहीं