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३. कम्मट्ठानग्गहणनिद्देस
१५९ ३४. चरियानुकूलतो ति। चरियानं अनुकूलतो पेत्थ विनिच्छयो वेदितब्बो। सेय्यथीदं-रागचरितस्स ताव एत्थ दस असुभा कायगतासती ति एकादस कम्मट्ठानानि अनुकूलानि।दोसचरितस्स चत्तारो ब्रह्मविहारा, चत्तारिवण्णकसिणानी ति अट्ठ। मोहचरितस्स वितक्कचरितस्स च एकं आनापानस्सतिकम्मट्ठानमेव । सद्धाचरितस्स पुरिमा छ अनुस्सतियो। बुद्धिचरितस्स मरणस्सति, उपसमानुस्सति, चतुधातुववत्थानं, आहारे पटिकूलसा ति चत्तारि। सेसकसिणानि चत्तारो च आरुप्पा सब्बचरितानं अनुकूलानि। कसिणेसु च यं किञ्चि परित्तं वितकचरितस्स, अप्पमाणं मोहचरितस्सा ति।
एवमेत्थ "चरियानुकूलतो विनिच्छयो वेदितब्बो" ति॥ (१०)
सब्बं चेतं उजुविपच्चनीकवसेन च अतिसप्यायवसेन च वुत्तं। रागादीनं पन अविक्खम्भिका सद्धादीनं वा अनुपकारा कुसलभावना नाम नत्थि।
वुत्तं पि चेतं मेघियसुत्ते-"चत्तारो धम्मा उत्तरि भावेतब्बा। असुभा भावेतब्बा रागस्स पहानाय । मेत्ता भावेतब्बा ब्यापादस्स पहानाय। आनापानस्सति भावेतब्बा वितक्कुपच्च्छेदाय । अनिच्चसा भावेतब्बा अस्मिमानसमुग्घाताया" (खु०१-१०५) ति।
. राहुलसुत्ते पि-"मेत्तं, राहुल, भावनं भावेही" (म० २-१०४) ति आदिना नयेन एकस्सेव सत्त कम्मट्ठानानि वुत्तानि। तस्मा वचनमत्ते अभिनिवेसं अकत्वा सब्बत्थ अधिप्पायो परियेसितब्बो ति।
अयं कम्मट्ठानं गहेत्वा ति एत्थ कम्मट्ठानकथाविनिच्छयो। इस प्रकार, प्रत्यय के अनुसार विनिश्चय जानना चाहिये। (९)
३४. चर्या के अनुकूल होने के अनुसार- चर्या के अनुकूल होने के अनुसार भी विनिश्चय जानना चाहिये। यथा-रागचरित के लिये दस अशुभ एवं कायगता स्मृति-ये ग्यारह कर्मस्थान अनुकूल हैं। द्वेषचरित के लिया चार ब्रह्मविहार एवं चार वर्ण-कसिण-ये आठ। मोहचरित के लिये और वितर्कचरित के लिये केवल एक आनापानस्मृति कर्मस्थान ही अनुकूल है। श्रद्धाचरित के लिये-प्रथम छह अनस्मृतियाँ। बद्धिचरित के लिये-मरणस्मृति, उपशमानुस्मृति, चतुर्धातुव्यवस्थापन, आहार में प्रतिकूल संज्ञा-ये चार । शेष कसिण और चार आरूप्य सभी चरितों के लिये अनुकूल हैं। कसिणों में जो कोई परिमित है वह वितर्कचरित के लिये; जो कोई अप्रमाण है वह मोहचरित के लिये अनुकूल है। (१०)
इस प्रकार चर्या के अनुकूल विनिश्चय जानना चाहिये।
यह सब स्पष्ट विरोध के रूप में एवं पूर्ण अनुकूलता के रूप में निर्दिष्ट है। किन्तु ऐसी कोई भी कुशलभावना नहीं है, जो रागादि का शमन करनेवाली एवं श्रद्धादि की सहायक न हो।
___ मेघियसुत्त में यह कहो भी कहा है-"इसके गुणों की परिपूर्णता, कल्याणमित्रता, अच्छी बातों को सुनना, बल और बुद्धि-इन पाँच बातों के पश्चात्, चार धर्मों की भावना करनी चाहिये। राग के प्रहाण के लिये अशुभ की भावना करनी चाहिये; द्वेष के प्रहाण के लिये मैत्री की भावना करनी चाहिये; वितर्क को दूर करने के लिये आनापानस्मृति की भावना करनी चाहिये; अस्मिमान ('मैं हूँ'यह अभिमान) दूर करने के लिये अनित्यसंज्ञा की भावना करनी चाहिये।"
राहुलसुत्त में भी-"राहुल, मैत्रीभावना का अभ्यास करो" आदि प्रकार से एक में ही सात कर्मस्थान (१ मैत्री, २. करुणा, ३ मुदिता, ४ उपेक्षा, ५. अशुभ, ६. अनित्यसंज्ञा, ७. आनापानस्मृति)