SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ विसुद्धिमग्ग इमानि अट्ठ चलितारम्मणानि तानि च खो पुब्बभागे । पटिभागं पन सन्निसिन्नमेव होति । सेसानि न चलितारम्मणानी ति । एवं आरम्मणतो ॥ (६) ३१. भूमितो ति । एत्थ च दस असुभा, कायगतासति, आहारे पटिकूलसञ्ञा ति इमानि द्वादस देवे नप्पवत्तन्ति । तानि द्वादस आनापानस्सति चा ति इमानि तेरस ब्रह्मलोके प्पवत्तन्ति । अरूपभवे पन ठपेत्वा चत्तारो आरुप्पे अञ्ञ नप्पवत्तति । मनुस्सेसु सब्बानि पि पवत्तन्तीति । एवं भूमितो ॥ ( ७ ) ३२. गहणतो ति । दिट्ठफुट्ठसुतग्गहणतो पेत्थ विनिच्छयो वेदितब्बो । तत्र ठपेत्वा वायोकसिणं सेसा नव कसिणा, दस असुभा ति इमानि एकूनवीसति दिट्ठेन गहेतब्बानि । पुब्बभागे चक्खुना ओलोकेत्वा निमित्तं नेसं गहेतब्बं ति अत्थो । कायगतासतियं तचपञ्चकं दिट्ठेन, सेसं सुतेनाति एवं तस्सा आरम्मणं दिट्ठसुतेन गहेतब्बं । आनापानस्सति फुट्ठेन, वायोकसिणं दिट्ठफुट्ठेन, सेसानि अट्ठारस सुतेन गहेतब्बानि । उपेक्खाब्रह्मविहारो चत्तारो आरुप्पा ति इमानि चेत्थ न आदिकम्मिकेन गहेतब्बानि, सेसानि पञ्चतिंस गहेतब्बानी ति । एवं गहणतो ॥ (८) ३३. पच्चयतो ति । इमेसु पन कम्मट्ठानेसु ठपेत्वा आकासकसिणं सेसा नव कसिणा आरुप्पानं पच्चया होन्ति । दस कसिणा अभिज्ञानं । तयो ब्रह्मविहारा चतुत्थब्रह्मविहारस्स । मिंट्ठिमं आरुप्पं उपरिमस्स उपरिमस्स । नेवसञ्जनासञ्ञायतनं निरोधसमापत्तिया । सब्बानि पि सुखविहारविपस्सनाभवसम्पत्तानं ति । एवं पच्चयतो ॥ (९) प्रकाश के गतिशील होने से ये आठ सचल आलम्बन हैं, किन्तु प्रारम्भिक स्तर पर प्रतिभांग तो निश्चल ही होता है। इस प्रकार आलम्बन के अनुसार कर्मस्थान का विनिश्चय है । (६) ३१. भूमि के अनुसार- दस अशुभ, एक कायगता स्मृति, एक आहार में प्रतिकूल संज्ञाये बारह (कर्मस्थान) देवताओं में नहीं पाये जाते । ये बारह एवं एक आनापानस्मृति- ये तेरह ब्रह्मलोक में नहीं पाये जाते । किन्तु अरूप भव (= अरूप धातु) में चार आरूप्यों को छोड़कर अन्य कोई भी कर्मस्थान नहीं पाया जाता। मानवों में ये सब (चालीस) पाये जाते हैं। इस प्रकार भूमि के अनुसार विनिश्चय है । (७) ३२. ग्रहण के अनुसार- दृष्ट, स्पृष्ट एवं श्रुत के रूप में ग्रहण के अनुसार भी विनिश्चय जानना चाहिये। उन चालीस कर्मस्थानों में, वायुकसिण को छोड़कर शेष ९ कसिण, १० अशुभ = इन उन्नीस (१९) को दृष्ट रूप में ग्रहण करना चाहिये। तात्पर्य यह है कि पहले आँख से देखकर पश्चात् इसका निमित्त ग्रहण करना चाहिये। कायगता स्मृति में त्वचा आदि पाँच (केश, लोम, नख, दाँत और त्वचा) को देखकर, शेष को सुनकर इस प्रकार उसका आलम्बन देख-सुन कर ग्रहण करना चाहिये। उपेक्षा ब्रह्मविहार एवं चार आरूप्य ये उसके द्वारा, जिसने अभी समाधि के अभ्यास का प्रारम्भ ही किया है, ग्रहण किये जाने योग्य नहीं हैं। शेष पैंतीस ग्रहण किये जाने योग्य हैं। इस प्रकार ग्रहण के अनुसार विनिश्चय जानना चाहिये । (८) ३३. कारण (= प्रत्यय) के अनुसार- इन कर्मस्थानों में आकाशकसिण को छोड़कर शेष नौ कसिण आरूपयों के प्रत्यय होते हैं। दस कसिण अभिज्ञाओं के तीन ब्रह्मविहार चतुर्थ ब्रह्मविहार के । नीचे-नीचे के आरूप्य ऊपर-ऊपर के (आरूप्यों के) । नैवसंज्ञानासंज्ञायतन निरोधसमापत्ति का । ये सभी सुखविहार, विपश्यना और भवसम्पत्ति (= श्रेष्ठ योनियों में जन्म) के प्रत्यय हैं।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy