SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विशुद्धिमग्ग यं तं "केवलं अट्ठसञ्जय अफरिं पथविं इमं " ( खु०२-२३८) ति वुत्तं, तं लाभिस्स सतो उपट्ठानाकारवसेन वृत्तं । यथेव हि धम्मासोककाले करवीकसकुणो समन्ता आदासभित्तीसु अत्तनो छायं द्रिस्वा सब्बदिसासु करवीकसञ्जी हुत्वा मधुरं गिरं निच्छारेसि, एवं थे पिट्ठञाय लाभित्ता सब्बदिसासु उपट्ठितं निमित्तं पस्सन्तो 'केवला पि पथवी अट्ठिकभरिता' ति चिन्तेसी ति । १५६ यदि एवं, या असुभज्झानानं अप्पमाणारम्मणता वृत्ता सा विरुज्झती ति ? सा च न विरुज्झति । एकच्चो हि उद्धमातके वा अट्ठिके वा महन्ते निमित्तं गण्हाति, एकच्चो अप्पके। इमिना परियायेन एकच्चस्स परित्तारम्मणं जाणं होति, एकच्चस्स अप्पमाणारम्मणं ति । यो वा एतं वढने आदीनवं अपस्सन्तो वड्ढेति, तं सन्धाय " अप्पमाणारम्मणं" ति वृत्तं । आनिसंसाभावा पन न वड्ढेतब्बानी ति । यथा च एतानि एवं सेसानि पि न वड्ढेतब्बानि । कस्मा ? तेसु हि आनापाननिमित्तं ताव वड्डयतो वातरासि येव वड्ढति, ओकासेन च परिच्छिन्नं । इति सादीनवत्ता ओकासेन च परिच्छिन्नत्ता न वड्ढेतब्बं । ब्रह्मविहारा सत्तारम्मणा, तेसं निमित्तं वड्ढयतो सत्तरासि येव वड्ढेय्य, न च तेन अत्थो अत्थि, तस्मा तं पि न वड्ढेतब्बं । यं पन वुत्तं - " मेत्तासहगतेन चेतसा एक ं दिसं फरित्वा" ( दी० १-२१०) ति आदि, तं परिग्गहवसेनेव वृत्तं । एकावासद्विआवासादिना हि अनुक्कमेन एकिस्सा दिसाय सत्ते परिग्गहेत्वा भावेन्तो एकं किन्तु यह जो कहा गया है कि "मैंने केवल अस्थि-संज्ञा के इस समग्र पृथ्वी को व्याप्त कर दिया है", वह इस प्रकार की संज्ञा का लाभ करने वाले व्यक्ति को जैसा दिखायी देता उसके अनुसार कहा गया है। जैसा कि सम्राट् धर्माशोक के समय में कोई करवीक पक्षी चारों ओर शीशे की दीवारों में अपनी छाया देखकर 'सभी दिशाओं में करवीक (पक्षी) हैं- ऐसा समझकर मधुर स्वर में बोल पड़ा था ( द्र० म० नि० अ० क० ३, ३२८-३) उसी प्रकार स्थविर (सिङ्गाल पितर) ने अस्थिक संज्ञा का लाभ करने से सभी दिशाओं में उपस्थित निमित्त को देखते हुए "सम्पूर्ण पृथ्वी कालों से भरी हुई है" - इस प्रकार चिन्तन किया था । शङ्का - यदि ऐसा है तो अशुभ (आलम्बनों) ध्यानों की व्याख्या में जो अप्रमाण आलम्बनका वर्णन है, उसका विरोध होगा ? समाधान- उसका विरोध नहीं होगा क्योंकि कोई साधक दीर्घाकार उद्धमातक में या काल में निमित्त का ग्रहण करता है, कोई लघु आकार वाले में। तदनुसार किसी का परित्रालम्बन ज्ञान होता है, तो किसी का अप्रमाणालम्बन । अथवा जो इसके वर्धन में दोष न देखते हुए उसे बढ़ाता है, उसी के सन्दर्भ में 'अप्रमाणालम्बन' कहा गया है। किन्तु क्योंकि उनके वर्धन में कोई गुण (आनृशंस्य) नहीं है, इसलिये वर्धन नहीं करना चाहिये । और जैसे इनको, वैसे ही शेष को भी नहीं बढ़ाना चाहिये। क्यों? क्योंकि उनमें आनापाननिमित्त का वर्धन करने से वातराशि ही बढ़ेगी और उसका स्थान भी परिच्छिन्न अर्थात् नासिकापुट है, इसलिये इसमें दोष होने से एवं स्थान में परिच्छिन्न होने से, नहीं बढ़ाना चाहिये। ब्रह्मविहारों के आलम्बन सत्त्व होते हैं। उनका निमित्त बढ़ाने में सत्त्वराशि में ही वृद्धि होगी और यह लक्ष्य नहीं है; इसलिये उसका भी विस्तार नहीं करना चाहिये। किन्तु जो कहा गया है"मैत्रीयुक्त चित्त से एक दिशा को सर्वांशतः ध्यान में लेकर" आदि, वह परिग्रह के अनुसार ही कहा गया है। एक आवास, दो आवास के क्रम से एक दिशा के सत्त्वों का ग्रहण कर भावना करने से " एक
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy