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३. कम्मट्ठानग्गहणनिद्देस
२८. समतिक्कमतो ति । द्वे समतिक्कमा – अङ्गसमतिक्कमो च, आरम्मणसमतिक्कमो च । तत्थ सब्बेसु पि तिकचतुक्कज्झानिकेसु कम्मट्ठानेसु अङ्गसमतिक्कमो होति वितक्कविचारादीनि झानङ्गानि समतिक्कमित्वा तेस्वेवारम्मणेसु दुतियज्झानादीनं पत्तब्बतो, तथा चतुत्थब्रह्मविहारे । सो पि हि मेत्तादीनं येव आरम्मणे सोमनस्सं समतिक्कमित्वा पत्तब्बो ति । चतूसु पन आरुप्पेसु आरम्मणसमतिक्कमो होति । पुरिमेसु हि नवसु कसिणेसु अञ्जतरं समतिक्कमित्वा आकासानञ्चायतनं पत्तब्बं, आकासादीनि च समतिक्कमित्वा विञ्ञणञ्चायतनादीनि । सेसेसु समतिक्कमो नत्थीति । एवं समतिक्कमतो ॥ (४)
२९. वड्ढनावड्ढनतो ति । इमेसु चत्तालीसाय कम्मट्ठानेसु दस कसिणानेव वड्ढेतब्बानि। यत्तकं हि ओकासं कसिणेन फरति, तदब्भन्तरे दिब्बाय सोतधातुया सद्दं सोतुं, दिब्बेन चक्खुना रूपानि पस्सितुं, परसत्तानं चेतसा चित्तमञ्जातुं समत्थो होति ।
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कायगतासति पन असुभानि च न वड्ढेतब्बानि । कस्मा ? ओकासेन परिच्छिन्नत्ता आनिसंसाभावा च । सा च नेसं ओकासेन परिच्छिन्नत्ता भावनानये आविभविस्सति । तेसु पन वड्ढितेसु कुणपरासि येव वढति, न कोचि आनिसंसो अत्थि । वृत्तं पि चेतं सोपाकपञ्हाव्याकरणे - " विभूता, भगवा, रूपसञ्ज, अविभूता अट्ठिकसञ" ति । तत्र हि निमित्तवड्ढनवसेन रूपसञ्ज विभूता ति वुत्ता, अट्ठिकसञ्ञ अवढनवसेन अविभूताति वृत्ता ।
ब्रह्मविहार तीन ध्यानों को, चतुर्थ ब्रह्मविहार एवं चार आरूप्य चतुर्थ ध्यान को लाने वाले होते हैं ' इस प्रकार ध्यान -प्रभेद से के अनुसार विनिश्चय जानना चाहिये । (३)
२८ समतिक्रमण के अनुसार- दो समतिक्रमण हैं - १. अङ्ग - समतिक्रमण एवं २. आलम्बनसमतिक्रमण । उन सभी कर्मस्थानों में जो कि तीन और चार ध्यानों को लाते हैं, अङ्ग का समतिक्रमण होता है। क्योंकि द्वितीय ध्यान आदि की प्राप्ति उन्हीं प्रथम ध्यान आदि के आलम्बनों में वितर्क और विचार का समतिक्रमण करके की जाती है; वैसे ही चतुर्थ ब्रह्मविहार में भी करनी चाहिये, क्योंकि उसकी प्राप्ति भी मैत्री आदि के आलम्बन में सौमनस्य का समतिक्रमण करके होती है। किन्तु चार आरूप्यों में आलम्बन का समतिक्रमण होता है। प्रथम नौ कसिणों में से किसी का समतिक्रमण करके आकाशानन्त्याययन की प्राप्ति होती है आदि। शेष में समतिक्रमण नहीं होता ।
इस प्रकार समतिक्रमण के अनुसार विनिश्चय जानना चाहिये । (४)
२९. वर्धन - अवर्धन के अनुसार- इन चालीस कर्मस्थानों में से केवल दस कसिणों का ही वर्धन (= उनको अपने ध्यान में बढ़ाते जाना) करना चाहिये। कसिण का विस्तार जिस सीमा तक होता है, उसी के भीतर साधक दिव्य श्रोत्र से शब्द सुनने, दिव्यचक्षु से रूप को देखने और परचित्त के ज्ञान में समर्थ होता है।
किन्तु कायगता स्मृति का या अशुभों का भी वर्धन नहीं करना चाहिये। क्यों? क्योंकि वे किसी स्थानविशेष में परिच्छिन्न (सीमित) और गुण-रहित है। वह उनकी स्थानविशेष में परिच्छिन्नता भावनानय में विवेचन करते समय स्पष्ट की जायगी। यदि उन अशुभों का वर्धन किया जाय (अनेक शवों को आलम्बन बनाया जाय तो शवों की राशि में ही वृद्धि होगी, जिससे कोई लाभ नहीं है। श्वपाकप्रश्न व्याकरण में यह कहा भी गया है- "भगवन्, रूपसंज्ञा पूर्णतः स्पष्ट (= विभूता) है, अस्थिकसंज्ञा अस्पष्ट (= अविभूता) है।" यहाँ निमित्त के वर्धन का प्रयोजन होने से रूपसंज्ञा को स्पष्ट कहा गया है। एवं अवधर्क के सहारे अस्थिक संज्ञा को अविभूत कहा गया है।