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________________ ३. कम्मट्ठानग्गहणनिद्देस १४९ गणारामता, कुसलानुयोगे अरति, अनवट्टितकिच्चता, रत्तिं धूमायना, दिवा पज्जलना, हुराहुरं धावना ति एवमादयो धम्मा बहुलं पवत्तन्ती ति॥ (५) एवं धम्मप्पवत्तितो चरियायो विभावये॥ २२. यस्मा पन इदं चरियाविभावनविधानं सब्बाकारेन नेव पाळियं, न अट्ठकथायं आगतं, केवलं आचरियमतानुसारेन वुत्तं, तस्मा न सारतो पच्चेतब्बं । रागचरितस्स हि वुत्तानि इरियापथादीनि दोसचरितादयो पि अप्पमादविहारिनो कातुं सक्कोन्ति । संसट्टचरितस्स च पुग्गलस्स एकस्सेव भिन्नलक्खणा इरियापथादयो न उपपजन्ति। यं पनेतं अट्ठकथास चरियाविभावन-विधानं वुत्तं, तदेव सारतो पच्चेतब्बं । वुत्तं हेतं-"चेतोपरियाणस्स लाभी आचरियो चरियं ञत्वा कम्मट्ठानं कथेस्सति, इतरेन अन्तेवासिको पुच्छितब्बो"( ) ति। तस्मा चेतोपरियाणेन वा तं वा पुग्गलं पुच्छित्वा जानितब्बं-अयं पुग्गलो रागचरितो, अयं दोसादीसु अञ्जतरचरितो ति। २३. किं चरितस्स पुग्गलस्स किं सप्पायं ति। एत्थ पन सेनासनंताव रागचरितस्स अधोतवेदिकं भूमट्ठकं अकतपब्भारकं तिणकुटिकं पण्णसालादीनं अञ्जतरं रजोकिण्णं जतुकाभरितं, ओलुग्गविलुग्गं अति उच्चं वा अतिनीचं वा उज्जङ्गलं सासवं असुचि विसममग्गं, यत्थ मञ्चपीठं पि मङ्कणभरितं दुरूपं दुब्बण्णं, यं ओलोकेन्तस्सेव जिगुच्छा उप्पज्जति, सप्पायं। निवासनपारुपनं अन्तच्छिन्नं ओलम्बविलम्बसुत्तकाकिण्णं सम्यक रूप से प्रयास करना आदि; वितर्कचरित में वाचालता, सामाजिकता, कुशल के प्रति रति न होना, जिस कार्य का उत्तरदायित्व लिया हो उसे पूरा न करना, रातभर धुंआते रहना, दिनभर जलते रहना, मन को इधर उधर दौड़ाते रहना-आदि धर्म अधिकता से रहते हैं।। इस प्रकार धर्मप्रवृत्ति के अनुसार चर्याओं को जानना चाहिये।। २२. आचार्य का मत-चूँकि चर्याओं को पहचानने के विषय में पूर्वोक्त विधान समग्रतः न तो पालि (=त्रिपिटक) में, न ही अट्ठकथाओं में प्राप्त होता है, अपितु केवल आचार्यों के मतानुसार कहा गया है; अतः इसे प्रामाणिक नहीं मानना चाहिये । क्योंकि, उदाहरण के रूप में रागचरित के लिये जो ईर्यापथ आदि बतलाये गये हैं, उन्हें अप्रमाद के साथ विहार करने वाले द्वेषचरित भी पूर्ण कर सकते है। साथ ही, मिश्रितचरित वाले व्यक्ति के ईर्यापथ आदि विशिष्ट लक्षणों को जानने का जो विधान बतलाया गया है, उसे ही प्रामाणिक मानना चाहिये। कहा भी गया है-"चेतःपर्यायज्ञान (=पर-चित्त का ज्ञान) जिसे प्राप्त हो, ऐसा ही आचार्य (शिष्य की) चर्या को जानकर उसे कर्मस्थान बतलायगा । अन्य (जिसे ऐसा ज्ञान प्राप्त नहीं है) को शिष्य से प्रश्न पूछना चाहिये और उन प्रश्नों का वह जो उत्तर दे, उन्हीं के आधार पर उसके स्वभाव को समझना चाहिये।" इस प्रकार चेत पर्यायज्ञान से या उस व्यक्ति से पूछकर जानना चाहिये कि यह व्यक्ति रागचरित है या द्वेष आदि किसी अन्य चरित का है। २३ किस चरित के व्यक्ति के लिये क्या अनुकूल है?- इनमें रागचरित के लिये (क) ऐसा शयनासन अनुकूल है जो कि अपरिशुद्ध वेदी वाला, भूमि पर ही बनाया हुआ, जिसमें छज्जा (=पब्भार) न हो, घास-फूस की झोपड़ी या पर्णकुटी आदि में से कोई एक, धूल से भरा, जहाँ चमगादड़ बहुतायत से रहते हो, दोलायमान (=हिलता-डुलता) हो, बहुत ऊँचा या बहुत नीचा, जङ्गल से घिरा हुआ, जहाँ (जगली जानवरों आदि का) आतङ्क हो, जहाँ जाने का रास्ता गन्दा और ऊँचा-नीचा (ऊबड़-खाबड़) हो, जहाँ चौकी-चारपाई भी खटमलों से भरी और इतनी भद्दी हो कि देखते ही अरुचि उत्पन्न हो जाय ।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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