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________________ १५० विसुद्धिमग्ग जालपूवसदिसं, साणि विय खरसम्फस्सं किलिटुं भारिकं किच्छपरिहरणं सप्पायं । पत्तो पि दुब्बण्णो मत्तिकापत्तो वा आणिगण्ठिकाहतो अयोपत्तो वा गरुको दुस्सण्ठानो सीसकपालमिव जेगुच्छो वट्टति। भिक्खाचारमग्गो पि अमनापो अनासन्नगामो विसमो वट्टति। भिक्खाचारगामो पि यत्थ मनुस्सा अपस्सन्ता विय चरन्ति, यत्थ एककुले पि भिक्खं अलभित्वा निक्खमन्तं "एहि, भन्ते" ति आसमसालं पवेसेत्वा यागुभत्तं दत्वा गच्छन्ता गावी विय वजे पवसेत्वा अनवलोकेन्ता गच्छन्ति, तादिसो वट्टति । परिविसकमनुस्सा पि दासा वा कम्मकरा वा दुब्बण्णा दुद्दसिका किलिट्ठवसना दुग्गन्धा जेगुच्छा, ये अचित्तीकारेन यागुभत्तं छड्डेन्ता विय परिविसन्ति, तादिसा सप्पाया। यागुभत्सखजकं पि लूखं दुब्बणं सामाककुद्रूसककणाजकादिमयं पूतितकं बिलङ्गं जिण्णसाकसूपेय्यं, यं किञ्चिदेव केवलं उदरपूरमत्तं वट्टति । इरियापथो पिस्स ठानं वा चङ्कमो वा वट्टति।आरम्मणं नीलादीसु वण्णकसिणेसु यं किञ्चि अपरिसुद्धवण्णं ति। इदं रागचरितस्स सप्पायं। (१) दोसचरितस्स सेनासनं नातिउच्चं नातिनीचं छायूदकसम्पन्नं सुविभत्तभित्तिधम्मसोपानं सुपरिनिट्ठितमालाकम्मलताकम्मनानाविधचितकम्मसमुज्जलं समसिनिद्धमुदुभूमितलं, ब्रह्मवि (ख) पहनने-ओढ़ने के कपड़े भी ऐसे हों कि जिनके किनारे फटे हुए हों, जगह-जगह जालीदार पुए के समान सूत निकल रहा हो, जिनका स्पर्श सन की तरह रूखा हो, जो मैले, भारी एवं कठिनाई से ले जाने योग्य हों। (ग) पात्र (में) भद्दा रङ्ग, अनगढ़ पेंदे और जोड़ों वाला मिट्टी का पात्र या भारी और अनगढ, कपाल की तरह जुगुप्सा उत्पन्न करने वाला लोहे का पात्र विहित है। (घ) भिक्षाटन का मार्ग भी ऐसा होना चाहिये जो मनोरम न हो, ग्राम के समीप न हो और ऊबड़-खाबड़ हो। (ङ) जहाँ वह भिक्षाटन के लिये जाय. वह ग्राम भी ऐसा हो जहाँ लोग उसे अनदेखा (उपेक्षा) करते हुए घूमते रहते हो, जहाँ एक भी कुल से भिक्षा न पाकर प्रस्थान करते समय ‘आइये, भन्ते' कहकर आसन-शाला में प्रवेश करा कर लोग यवागू-भात देकर इस प्रकार चले जाते हो जैसे गाय को पशुशाला में घुसाकर लोग (पीछे मुड़कर) विना देखे ही चले जाया करते हैं। (च) परोसने वाले दास या कर्मचारी ऐसे हो जो काले-कलूटे, कुरूप, मैले-कुचैले वस्त्र पहने हुए. दुर्गन्धयुक्त, जुगुप्सा उत्पन्न करने वाले हों और जो यवागू-भात को इस प्रकार उपेक्षा से परोसते हों मानो फेंक रहे हों। (छ) यवागू-भात आदि खाद्य भी ऐसा होना चाहिये जो कि रूखा-सूखा, देखने में अच्छा न लगने वाला, सावाँ, कोदो, खुद्दी आदि से बना हुआ हो, सड़ा मट्ठा, कांजी, सूखे-सड़े शाक का सूप" जो कुछ भी केवल पेट भरने मात्र के लिये हो। (ज) उसके लिये ईर्यापथ में केवल खड़े रहना य टहलना विहित है। (झ) आलम्बन के रूप में नील आदि वर्ण कसिणों (कात्या ) में से कोई अपरिशुद्ध वर्ण विहित हैं यह (सब) रागचरित के लिये अनुकूल हैं। (१) द्वेषचरित का शयनासन-(क) न बहुत ऊँचा न बहुत नीचा, उचित छाया और जल से युक्त. दीवारों, खम्भों और सीढ़ियों के द्वारा अच्छी तरह से विभाजित, मालाओं और लताओं से
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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