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________________ १४८ विसुद्धिमग्ग ओलोकेति, परित्तं पि गुणे सज्जति, भूतं पि दोसं न गण्हाति, पक्कमन्तो पि अमुञ्चितुकामो व हुत्वा सापेक्खो पक्कमति। दोसचरितो ईसकं पि अमनोरमं रूपं दिस्वा किलन्तरूपो विय न चिरं ओलोकेति, परित्ते पि दोसे पटिहाति, भूतं पि गुणं न गण्हाति, पक्कमन्तो पि मुञ्चितुकामो व हुत्वा अनपेक्खो पक्कमति। मोहचरितो यं किञ्चि रूपं दिस्वा परपच्चयिको होति, परं निन्दन्तं सुत्वा निन्दति, पसंसन्तं सुत्वा पसंसति, सयं पन अञआणुपेक्खाय उपेक्खको व होति। एस नयो सदसवनादीसु पि। सद्धाचरितादयो पन तेसं येवानुसारेन वेदितब्बा, तंसभागत्ता ति॥ (४) एवं दस्सनादितो चरियायो विभावये॥ धम्मप्पवत्तितो चेवा ति। रागचरितस्स च माया, साठेय्यं, मानो, पापिच्छता, महिच्छता, असन्तुट्ठिता, सिङ्गं, चापल्यं ति एवमादयो धम्मा बहुलं पवत्तन्ति । दोसचरितस्स कोधो, उपनाहो, मक्खो, पळासो, इस्सा, मच्छरियं ति एवमादयो। मोहचरितस्स थीनं, मिद्धं, उद्धच्चं, कुक्कुच्चं, विचिकिच्छा, आदानग्गाहिता, दुप्पटिनिस्सग्गिता ति एवमादयो। सद्धाचरितस्स मुत्तचागता, अरियानं दस्सनकामता, सद्धम्मं सोतुकामता, पामोज्जबहुलता, असठता, अमायाविता, पसादनीयेसु ठानेसु पसादो ति एवमादयो। बुद्धिचरितस्स सोवचस्सता, कल्याणमित्तता, भोजने मत्तञ्जुता, सतिसम्पजनं, जागरियानुयोगो, संवेजनीयेसु ठानेसु संवेगो, संविग्गस्स च योनिसो पधानं ति एवमादयो। वितकचरितस्स भस्सबहुलता, दर्शन आदि से- रागचरित यदि कहीं थोड़ा भी मनोरम रूप देखता है तो उसे देर तक चकित सा देखता रहता है। साधारण गुणों के प्रति भी वह आकर्षित हो जाता है। दोष के होने पर भी उसका ग्रहण नहीं करता, उस पर ध्यान नहीं देता । प्रस्थान करते समय दुःखी होकर इस प्रकार वहाँ से जाता है मानो छोड़कर जाने की इच्छा न हो रही हो। द्वेषचरित थोड़ा भी अमनोरम रूप देखकर उसे देर तक नहीं देखता रह सकता, मानो क्लान्त हो गया हो। छोटे-छोटे दोषों पर भी उसकी दृष्टि पड़ जाती है। जो गुण वर्तमान हैं, उनको भी ग्रहण नहीं करता । प्रस्थान करते समय, दुःखी न होते हुए भी वहाँ से इस प्रकार जाता है मानो पीछा छुड़ाना चाह रहा हो। मोहचरित किसी भी रूप को देखते समय दूसरों का अनुकरण करता है। दूसरों को निन्दा करते सुन कर निन्दा करता है, प्रशंसा करते सुनकर प्रशंसा करता है, किन्तु स्वयं अज्ञानजन्य उपेक्षा से युक्त होता है। शब्द-श्रवण आदि के बारे में भी ऐसा ही है। श्रद्धाचरित आदि को भी, उनके समानधर्मा होने से, उन्हीं के अनुसार जानना चाहिये। इस प्रकार दर्शन आदि के अनुसार चर्याओं को जानना चाहिये।। धर्मप्रवृत्ति से भी- रागचरित में माया, शाठ्य, मान, पाप की इच्छा, महत्त्वाकांक्षा, असन्तोष, बनाव-शृङ्गार, चञ्चलता आदि धर्म अधिकता से रहते हैं। द्वेषचरित में क्रोध, उपनाह (बद्धवैरता), म्रक्ष (दूसरे के गुणों को आगे न आने देने वाला), प्रदाश (निष्ठुरता), ईर्ष्या, मात्सर्य (कृपणता) आदि; मोहचरित में स्त्यान (मानसिक आलस्य), मृद्ध (शारीरिक आलस्य), औद्धत्य (उद्धतता), कौकृत्य (पश्चात्ताप), विचिकित्सा (शङ्का-सन्देह) आदानग्राहिता (हठधर्मिता) दुष्प्रतिनिसर्गिता (अपने दुराग्रह पर स्थिर रहना) आदि; श्रद्धाचरित में मुक्तहस्त हो दान करने की प्रवृत्ति, आर्यों के दर्शन में रुचि, सद्धर्मश्रवण की इच्छा, प्रसन्नता का आधिक्य, सरलता, सहजता, प्रसन्न होने के अवसर पर प्रसन्न होना आदि; बुद्धिचरित में आज्ञाकारिता, कल्याणमित्र की सङ्गति, भोजन में मात्रा का ज्ञान, स्मृति एव सजगता (सम्प्रजन्य), जागरणशील होना, संवेग के अवसरों में संवेग, प्राप्त संवेग के विषय में
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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