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________________ ३. कम्मट्ठानग्गहणनिद्देस १४७ असुद्धं विसमं सम्मज्जति। मोहचरितो सिथिलं सम्मजनिं गहेत्वा सम्परिवत्तकं आलोळयमानो असुद्धं विसमं सम्मज्जति। __यथा सम्मजने, एवं चीवरधोवनरजनादीसुपि सब्बकिच्चेसु निपुणमधुरसमसकच्चकारी रागचरितो, गाळहथद्धविसमकारी दोसचरितो, अनिपुणब्याकुलविसमापरिच्छिन्नकारी मोहचरितो। चीवरधारणं पि च रागचरितस्स नातिगाळ्हं नतिसिथिलं होति पासादिकं परिमण्डलं । दोसचरितस्स अतिगाळ्हं अपरिमण्डलं। मोहचरितस्स सिथिलं परिब्याकुलं। सद्धाचरितादयो तेसं येवानुसारेन वेदितब्बा, तंसभागत्ता ति ॥ (२) एवं किच्चतो चरियायो विभावये॥ भोजना ति। रागचरितो सिनिद्धमधुरभोजनप्पियो होति, भुञ्जमानो च नातिमहन्तं परिमण्डलं आलोपं कत्वा रसपटिसंवेदी अतरमानो भुञ्जति, किञ्चिदेव च सादुं लभित्वा सोमनस्सं आपज्जति। दोसचरितो लूखअम्बलभोजनप्पियो होति, भुञ्जमानो च मुखपूरकं आलोपं कत्वा अरसपटिसंवेदी तरमानो भुञ्जति, किञ्चिदेव च असादु लभित्वा दोमनस्सं आपज्जति। मोहचरितो अनियतरुचिको होति, भुञ्जमानो च अपरिमण्डलं परित्तमालोपं कत्वा भाजने छड्डेन्तो मुखं मक्खेन्तो विक्खित्तचितो तं तं वितक्केन्तो भुञ्जति।सद्धाचरितादयो पि तेसं येवानुसारेन वेदितब्बा, तंसभागत्ता ति॥ (३) एवं भोजनतो चरियायो विभावये॥ दस्सनादितो ति। रागचरितो ईसकं पि मनोरमं रूपं दिस्वा विम्हयजातो विय चिरं जल्दी-जल्दी दोनों ओर बालू उड़ाते हुए कर्कश शब्द के साथ गलत ढंग से और आधा अधूरा झाडू लगाता है। मोहचरित झाडू को ढीला पकड़ते हुए चारों तरफ बिखेरता हुआ सा झाडू लगाता है। जिस प्रकार झाडू लगाने में, उसी प्रकार चीवरों के धोने, रँगने आदि सभी कृत्यों में भी निपुणता व सुन्दरता के साथ, एक समान एवं आदर के साथ करने वाला रागचरित; कस-कस कर, अकड़ के साथ, असमान रूप से कार्य करने वाला द्वेषचरित होता है। फूहड़पन के साथ, घबड़ाहट के साथ, असमान रूप से और अनिश्चय के साथ करने वाला मोहचरित होता है। चीवर धारण भी रागचरित का न तो अधिक कसा और न ही अधिक ढीला, देखने में अच्छा लगने वाला और चारों ओर से बराबर होता है। द्वेषचरित का चीवर बहुत कसा हुआ और ऊँचा-नीचा होता है। मोहचरित का ढीला-ढाला और अस्त-व्यस्त । श्रद्धाचरित आदि को भी उन्हीं के अनुसार जानना चाहिये, उनके समानधर्मा होने से।। . इस प्रकार कृत्य से चर्याओं को जानना चाहिये। भोजन से- रागचरित को स्निग्ध और मधुर भोजन प्रिय होता है और भोजन करते समय वह बहुत बड़ा नहीं, अपितु सामान्य आकार का गोल-गोल ग्रास बनाकर स्वाद लेते हुए धीरे धीरे खाता है। थोड़ा-सा भी स्वादु भोजन उसे प्रिय होता है द्वेषचरित को थोड़ा भी सूखा या और खट्टा भोजन प्रिय होता है। खाते समय मुँह भर जाय-इतना बड़ा ग्रास बनाकर, स्वाद के प्रति उदासीन रहता हुआ जल्दी जल्दी खाता है। थोड़ा सा भी नीरस (भोजन) पाकर वह अप्रसन्न हो जाता है। मोहचरित की रुचि अनियत होती है वह भोजन करते समय छोटा छोटा और टेढ़ा मेढा ग्रास बनाकर बर्तन में छींटता हुआ, मुख में लगाता हुआ, विक्षिप्त चित्त के साथ, यह वह ऐसा-वैसा वितर्क करते हुए खाता है। श्रद्धाचरित आदि को भी उन्ही के अनुसार जानना चाहिये, उनके समानधर्मा होने से ।। इस प्रकार : न के अनुसार चर्याओ को जानना चाहिये।।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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