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विसुद्धिमग्ग
छम्भितो वि उद्धरति, सहसानुपीळितं चस्स पदं होति । वृत्तं पि चेतं मागण्डिय - सुत्तुप्पत्तियं
" रत्तस्स हि उक्कुटिकं पदं भवे, दुट्ठस्स होति अनुकड्डितं पदं ।
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मूळहस्स होति सहसानुपीळितं, विवट्टच्छदस्स इदमीदिसं पदं " ॥ ति ॥ ठानं पि रागचरितस्स पासादिकं होति मधुराकारं, दोसचरितस्स थद्धाकारं, मोहचरितस्स आकुलाकारं । निसज्जाय पि एसेव नयो। रागचरितो च अतरमानो समं सेय्यं पञ्ञपेत्वा सणिकं निपज्जित्वा अङ्गपच्चङ्गानि समोधाय पासादिकेन आकारेन सयति, वुट्ठापियमानो च सीघं अवुट्ठाय सङ्कितो विय सणिकं पटिवचनं देति । दोसचरितो तरमानो यथा वा तथा वा सेय्यं पञ्ञापेत्वा पक्खित्तकायो भाकुटिं कत्वा सयति, वुट्ठापियमानो च सीघं वुट्ठाय कुपितो विय पटिवचनं देति । मोहचरितो दुस्सण्ठानं सेय्यं पञ्ञापेत्वा विक्खित्तकायो बहुलं अधोमुखो सयति, वुट्ठापियमानो च हुङ्कारं करोन्तो दन्धं वुट्ठाति । सद्धाचरितादयो पन यस्मा रागचरितादीनं सभागा, तस्मा तेसं पि तादिसो व इरियापथो होती ति ॥ (१)
एवं ताव इरियापथतो चरियायो विभावये ॥ किच्चा ति । सम्मज्जनादीसु च किच्चेसु रागचरितो साधुकं सम्मज्जनिं गत्वा अतरमानो वालिकं अविप्पकिरन्तो सिन्दुबारकुसुमसन्थरमिव सन्धरन्तो सद्धं समं सम्मज्जति । दोसचरितो गाळ्हं सम्मज्जनिं गहेत्वा तरमानरूपो उभतो वालिकं उस्सारेन्तो खरेन सद्देन
ऐसा लगता है मानों खींच-खींच कर रख रहा हो । ३. मोहचरित हड़बड़ाया हुआ सा चलता है, हिचकिचाता हुआ पैर रखता है और हिचकिचाता हुआ ही उठाता है, पृथ्वी को एकाएक दबाता हुआ सा पैर रखता है। मागण्डियसूत्र की उपपत्ति (व्याख्याक्रम) में भी कहा गया है
"रागरक्त का पद-निक्षेप मध्यभाग से पृथ्वी का स्पर्श न करने वाला (= उक्कुटिक) होता है। द्वेषी का पद खींच कर रखा जानेवाला (= अनुकडित) होता है। मूढ़ का सहसा दबाने वाला (= सहसानुपीड़ित ) एवं विवर्त्तच्छद (=क्लेशरहित होकर भवपारगामी) का पद इस प्रकार का होता है।" खड़े होने की क्रिया का ढंग भी रागचरित का दूसरों के लिये प्रसन्नता (श्रद्धा) उत्पन्न करने वाला एवं सुन्दर होता है, द्वेषचरित का अकड़ (गर्व) के साथ एवं मोहचरित का चञ्चलता (हड़बड़ी) के साथ। बैठने की क्रिया में भी ऐसा ही है। रागचरित विना किसी व्याकुलता के, बिस्तर को ठीक से धीरे-धीरे बिछाकर, अङ्ग-प्रत्यङ्गों को समेट कर सुन्दर ढंग से सोता है। उठाये जाने पर सहसा न उठकर, सशङ्कित - सा धीरे से उत्तर देता है। द्वेषचरित जल्दी-जल्दी, जैसे-तैसे बिस्तर बिछाकर, शरीर को बिस्तर पर फेंके हुए सा, नाक-भौं चढ़ाये हुए सोता है। उठाये जाने पर भी सहसा उठकर, क्रोधित के समान उत्तर देता है। मोहचरित ऊटपटाँग ढंग से बिस्तर बिछाकर, शरीर को विक्षिप्त जैसा करके, प्रायः नीचे की ओर मुँह किये हुए सोता है एवं उठाये जाने पर 'हूँ' करता हुआ सुस्ती के साथ उठता है। श्रद्धारहित आदि चूँकि रागचरित आदि के समान चर्या वाले हैं, अतः उनका भी वैसा ही ईर्यापथ होता है ।।
इस प्रकार ईर्यापथ के अनुसार चर्याओं को जानना चाहिये ।। कृत्य से- झाडू लगाने (सफाई) आदि के कार्यों में, रागचरित अच्छी तरह से झाडू पकड़कर धीरे धीरे बालू को न छींटते हुए जैसे कोई सिन्दुबार (= निर्गुण्डी) के फूल बटोर रहा हो, वैसे बटोरते
सही ढंग से एवं सभी स्थानों पर एक समान झाडू लगाता है। द्वेषचरित दृढ़ता से झाड़ू पकड़ कर,