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________________ ३. कम्मट्ठानग्गहणनिद्देस १४५ 44 'यस्स पन कम्मायूहनक्खणे तयो पि अलोभादोसामोहा बलवन्तो होन्ति लोभादयो मन्दा, सो पुरिमनयेनेव महासङ्घरक्खितत्थेरो विय, अलुद्धो अदुट्ठो पञ्ञवा च होति " ति । (म० अट्ठ०२ / ३७३/७४) एत्थ च यो लुद्धो वुत्तो, अयं रागचरितो । दुट्ठदन्धा दोसमोहचरिता । पञ्ञवा बुद्धिरितो । अलुद्धअट्ठा पसन्नपकतिताय सद्धाचरिता । यथा वा अमोहपरिवारेन कम्मुना निब्बत्तो बुद्धिचरितो, एवं बलवसद्धापरिवारेन कम्मुना निब्बत्तो सद्धाचरितो, कामवितक्कादिपरिवारेन कम्मुना निब्बत्तो वितक्कचरितो, लोभादिना वोमिस्सपरिवारेन कम्मुना निब्बत्तो वोमिस्सचरितो ति। एवं लोभादीसु अञ्ञतरञ्जतरपरिवारं पटिसन्धिजनकं कम्मं चरियानं निदानं ति वेदितब्बं ॥ २०. यं पन वृत्तं - " कथं च जानितब्बं - 'अयं पुग्गलो रागचरितो' " ति आदि । तत्रायं नयो इरियापथतो किच्चा भोजना दस्सनादितो । धम्मप्पवत्तितो चेव चरियायो विभावये ॥ ति ॥ २१. तत्थ इरियापथतो ति रागचरितो हि पकतिगमनेन गच्छन्तो चातुरियेन गच्छति, सणिकं पादं निक्खिपति, समं निक्खिपति, समं उद्धरति, उक्कुटिकं चस्स पदं होति । दोसचरितो पादग्गेहि खणन्तो विय गच्छति, सहसा पादं निक्खिपति सहसा उद्धरति, अनुकड्डितं चस्स पदं होति । मोहचरितो परिब्याकुलाय गतिया गच्छति, छम्भितो विय पदं निक्खिपति, जिसकी प्रतिसन्धि के क्षण में अलोभ, अद्वेष, अमोह बलवान् हों और दूसरे मन्द वह पूर्वोक्त विधि से निर्लोभ एवं प्रज्ञावान् होता है साथ ही द्वेषी एवं क्रोधी भी । " किन्तु जिसकी प्रतिसन्धि के क्षण में अलोभ, अद्वेष, अमोह तीनों ही बलवान् होते हैं एवं लोभ आदि मन्द वह पूर्वोक्त विधि के अनुसार ही महासङ्घरक्षित स्थविर के समान, निर्लोभ, अद्वेष एवं प्रज्ञावान् होता है।" (म० अट्ठ०) यहाँ जिसे 'लोभी' कहा गया है, वह रागचरित है। द्वेषी (= द्विष्ट) एवं मन्द क्रमशः द्वेषचरित एवं मोहचरित हैं। प्रज्ञावान् बुद्धिचरित है। निर्लोभ एवं अद्वेष प्रसन्न (श्रद्धालु) प्रकृति के होने के कारण श्रद्धाचरित हैं। अथवा, जो अमोह के साथ रहने वाले कर्म से उत्पन्न है, वह बुद्धिचरित हैं। इसी प्रकार जो बलवती श्रद्धा के साथ रहने वाले कर्म से उत्पन्न है, वह श्रद्धाचरित है। काम, वितर्क आदि के साथ रहने वाले कर्म से उत्पन्न वितर्कचरित है। जो लोभ आदि के मिश्रण के साथ रहने वाले कर्म से उत्पन्न है, वह मिश्रित चरित है। इस प्रकार लोभ आदि में से इस या उस के साथ रहने वाले प्रतिसन्धिजनक कर्म को चर्या का कारण जानना चाहिये ।। पुद्गल के रागचरितत्व आदि जानने की विधि २०. किन्तु जो यह कहां गया है- "कैसे जानना चाहिये कि यह पुद्गल रागचरित है?" आदि; उस विषय में विधि है - "ईर्यापथ, कृत्य (कर्म), भोजन, दर्शन आदि एवं धर्म की प्रवृत्ति से भी ये चर्याएँ जानी जा सकती हैं।" २१. उनमें, ईर्यापथ से - १ रागचरित जब स्वाभाविक गति से चलता है तब सावधानी के साथ चलता है, धीरे-धीरे पैर रखता है, एक समान गति से रखता है, एक समान गति से उठाता है। उसके पैरों का मध्य भाग पृथ्वी का स्पर्श नहीं करता । २. द्वेषचरित पैरों के अग्रभाग से पृथ्वी को मानों खनते हुए चलता है। जल्दी-जल्दी पैर रखता है, जल्दी-जल्दी उठाता है। वह पैर रखता है तो
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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