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३. कम्महानग्गहणनिद्देस
१४३ इधूपपन्नो। पुब्बे छेदनवधबन्धनवेरकम्मबहुलो दोसचरितो होति, निरयनागयोनीहि वा चवित्वा इधूपपन्नो। पुब्बे मज्जपानबहुलो सुतपरिपुच्छाविहीनो च मोहचरितो होति,तिरच्छानयोनिया वा चवित्वा इधूपपन्नो ति। एवं पुब्बाचिण्णनिदाना ति वदन्ति।
द्विन्नं पन धातूनं उस्सन्नत्ता पुग्गलो मोहचरितो होति, पथवीधातुया च आपोधातुया च । इतरासं द्विन्नं उस्सन्नता दोसचरितो। सब्बासं समत्ता पन रागचरितो ति।
दोसेसु च सेम्हाधिको रागचरितो होति। वाताधिको मोहचरितो सेम्हाधिको वा मोहचरितो, वाताधिको वा रागचरितो ति। एवं धातुदोसनिदाना ति वदन्ति ।
तत्थ यस्मा पुब्बे इट्ठप्पयोगसुभकम्मबहुला पि सग्गा चवित्वा इधूपपन्ना पि च न सब्बे रागचरिता येव होन्ति, न इतरे वा दोसमोहचरिता। एवं धातूनं च यथावुत्तेनेव नयेन उस्सदनियमो नाम नत्थि । दोसनियमे च रागमोहद्वयमेव वुत्तं, तंपि च पुब्बापरविरुद्धमेव। सद्धाचरियादीसु च एकिस्सा पि निदानं न वुत्तमेव, तस्मा सब्बमेतं अपरिच्छिन्नवचनं।
१९. अयं पनेत्थ अट्ठकथावरियानं मतानुसारेन विनिच्छयो ।वुत्तं हेतं उस्सदकित्तने"इमे सत्ता पुब्बहेतुनियामन लोभुत्सदा, दोसुस्सदा, मोहुस्सदा, अलोभुस्सदा, अदोसुस्सदा, अमोहुस्सदा च होन्ति।
"यस्स हि कम्मायूहनक्खणे लोभो बलवा होति अलोभो मन्दो, अदोसामोहा दोष के कारण होती है-ऐसा कोई कोई विद्वान् कहते हैं। उनके अनुसार, पूर्व जन्म में इष्ट अर्थात् प्रिय के अन्वेषण में लगा हुआ, प्रायः शुभ कर्म करने वाला अथवा स्वर्ग से च्युत होकर यहाँ पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाला रागचरित होता है। पूर्व जन्म में अधिकतया काटने-मारने, बाँधने और द्वेष (वैर) से प्रेरित कर्म करने वाला या नरक अथवा नाग योनि में मरकर यहाँ उत्पन्न होने वाला द्वेषचरित होता है। पूर्व जन्म में अत्यधिक मद्यपायी और ज्ञान की बातें सुनने एवं उनके विषय में जिज्ञासा से प्रेरित होकर प्रश्न करने से रहित अथवा पशु (तिरश्चीन) योनि में मरकर यहाँ उत्पन्न होने वाला मोहचरित होता है। इस प्रकार कहा जाता है कि चर्या पूर्व-अभ्यास के कारण होती है।
दो धातुओं-पृथ्वी एवं जल की प्रबलता से पुद्गल मोहचरित होता है। अन्य दो धातुओं-तेज एवं वायु की प्रबलता से द्वेषचरित होता है। सभी धातुओं की समता होने के कारण रागचरित होता
वात, पित्त एवं कफ इन तीनों दोषों में, जिसमें कफ ( श्लेष्मा) की अधिकता होती है वह रागचरित होता है, जिसमें वात की अधिकता होती है वह मोहचरित होता है। अथवा, किसी किसी के मतानुसार जिसमें कफ की अधिकता होती है वह मोहचरित एवं जिसमें वात की अधिकता होती है, वह रागचरित होता है। इस प्रकार, चर्या धातु और दोष के कारण होती है-ऐसा कहा जाता है।
वस्तुतः इनमें पूर्व योनि में इष्ट के अन्वेषण में लगे हुए एवं अधिकतया शुभकर्मकर्ता एवं स्वर्ग से पतित होकर यहाँ उत्पन्न हुए सभी सत्त्व भी रागचरित ही होते हों और दूसरे द्वेष-मोहचरितऐसी बात नहीं है। इसी प्रकार धातुओं की पूर्वोक्त विधि द्वारा कोई विशद ( व्यापक) नियम सूचित नहीं होता । दोष नियम में भी राग और मोह-दो का ही उल्लेख है, और यह भी पूर्वापर क्रम से परस्पर विरुद्ध ही है। एवं श्रद्धाचर्या आदि में से एक का भी कारण इस विषय में नहीं बतलाया गया। इसलिये यह सब अनिश्चित (अपरिच्छिन्न) कथन ही है।
१९. अट्ठकथा के आचार्यों के मतानुसार इस षट्त्व का विनिश्चय (निर्णय) इस प्रकार हैविशद (=प्रधान, उत्सद) के स्पष्टीकरण में इस प्रकार कहा गया है