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विसुद्धिमग्ग आसन्नगुणत्ता। यथा हि अकुसलपक्खे दोसो निस्सिनेहो न आरम्मणं अल्लीयति, एवं कुसलपक्खे पञ्जा। यथा च दोसो अभूतं पि दोसमेव परियेसति, एवं पञ्जा भूतं दोसमेव। यथा दोसो सत्तपरिवज्जनाकारेन पवत्तति, एवं पञ्जा सङ्खारपरिवज्जनाकारेन, तस्मा दोसचरितस्स बुद्धिचरितो सभागो।
यस्मा पन मोहचरितस्स अनुप्पन्नानं कुसलानं धम्मानं उप्पादाय वायममानस्स येभुय्येन अन्तरायकरा वितका उप्पजन्ति, मोहस्स आसन्नलक्खणत्ता । यथा हि मोहो परिब्याकुलताय अनवट्ठितो, एवं वितको नानप्पकारवितकनताय । यथा च मोहो अपरियोगाहनताय चञ्चलो, तथा वितको लहुपरिकप्पनताय, तस्मा मोहचरितस्स वितकचरितो सभागो ति।
१६. अपरे तण्हामानदिट्ठवसेन अपरा पि तिस्सो चरिया वदन्ति । तत्थ तण्हा रागो येव, मानो च तंसम्पयुत्ता ति तदुभयं रागचरियं नातिवत्तति। मोहनिदानत्ता च दिट्ठिया दिद्विचरिया मोहचरियमेव अनुपतति।
चरियानिदानं १७. ता पनेता चरिया किंनिदाना? कथं च जानितब्बं-'अयं पुग्गलो रागचरितो, अयं पुग्गलो दोसादीसु अञतरचरितो' ति? किंचरितस्स पुग्गलस्स किं सप्पायं ति?
१८. तत्र पुरिमा ताव तिस्सो चरिया पुब्बाचिण्णनिदाना धातुदोसनिदाना चा ति एकच्चे वदन्ति। पुब्बे किर इट्ठप्पयोगसुभकम्मबहुलो रागचरितो होति, सग्गा वा चवित्वा
__ क्योंकि द्वेषचरित व्यक्ति में कुशल चित्त उत्पन्न होने के समय प्रज्ञा बलवती होती है, क्योंकि वह द्वेष से मिलते-जुलते गुण वाली है; इसलिये द्वेषचरित बुद्धिचरित का समानधर्मा है। जिस प्रकार अकुशल पक्ष में द्वेष स्नेहरहित होता है, आलम्बन में लीन नहीं होता; इसी प्रकार कुशल पक्ष में प्रज्ञा होती है। जिस प्रकार द्वेष असत् दोष को भी खोजता रहता है उसी प्रकार प्रज्ञा सत् दोष को खोजती रहती है। जिस प्रकार द्वेष सत्त्वों के प्रति परिवर्जन (=अस्वीकार) के रूप में प्रवृत्त होता है, उसी प्रकार प्रज्ञा संस्कारों के प्रति परिवर्जन के रूप में प्रवृत्त होती है। अतः द्वेषचरित बुद्धिचरित से मिलते-जुलते गुण वाला होता है।
__ क्योंकि जब मोहचरित अनुत्पन्न कुशल धर्मों के उत्पाद का प्रयास करता है, तब प्रायः विघ्नकारी वितर्क उपस्थित होते हैं; क्योंकि वितर्क मोह से मिलते-जुलते लक्षण वाला है। इसलिये मोहचरित का वितर्कचरित समीपधर्मा है। जिस प्रकार मोह व्याकुलता के कारण अस्थिर होता है, उसी प्रकार वितर्क भी अनेक प्रकार के वितर्क करने के कारण अनवस्थित होता है। जिस प्रकार मोह आलम्बन में संयुक्त न होने के कारण चञ्चल कहा जाता है, उसी प्रकार वितर्क भी क्षुद्र परिकल्पनाएँ करने के कारण चञ्चल होता है। अतः मोहचरित का वितर्कचरित तुल्यधर्मा कहलाता है।
१६. अन्य विद्वान् तृष्णा, मान और दृष्टि के भेद से तीन अन्य चर्याएँ भी स्वीकार करते हैं। इनमें तृष्णा तो राग ही है और मान उससे सम्प्रयुक्त होता है। इसलिये वे दोनों वस्तुतः रागचरित से भिन्न नहीं हैं। एवं क्योंकि दृष्टि मोह से उत्पन्न होती है, इसलिये दृष्टिचरित का भी मोहचरित में ही समावेश है। चर्या के कारण (निदान)
१७. उस चर्या का निदान क्या है? एवं यह कैसे जानना चाहिये कि "यह पुद्गल रागचरित है? यह पुद्गल द्वेष आदि अन्य चरित वाला है? किस चरित वाले पुड. त के लिये क्या अनुकूल है?" .
१८. उनमें, पूर्व की तीन चर्याएँ (राग, द्वेष एवं मोह) पूर्वकृत कर्मों के अभ्यास एवं धातु या