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________________ ३. कम्मट्ठानग्गहणनिद्देस १४१ आरोचेत्वा ताय वेलाय उपसङ्कमितब्बं । असप्पायवेलायं हि वुच्चमानं पि कम्मट्ठानं न सक्का होति मनसिकतुं ति । अयं कम्मट्ठानदायकं कल्याणमित्तं उपसङ्क्रमित्वा ति एत्थ वित्थारो ।। चरियाकथा १५. इदानि अत्तनो चरियानुकूलं ति । एत्थ चरिया ति छ चरिया - रागचरिया, दोसचरिया, मोहचरिया, सद्धाचरिया, बुद्धिचरिया, वितक्कचरिया ति । केचि पन रागादीनं संसग्गसन्निपातवसेन अपरा पि चतस्सो, तथा सद्धादीनं ति इमाहि अट्ठहि सद्धिं चुद्दस इच्छन्ति । एवं पन भेदे वुच्चमाने रागादीनं सद्धादीहि पि संसग्गं कत्वा अनेका चरिया होन्ति । तस्मा सङ्क्षेपेन छळेव चरिया वेदितब्बा । चरिया, पकति, उस्सन्नता ति अत्थतो एकं । तासं वसेन छळेव पुग्गला होन्ति - रागचरितो, दोसचरितो, मोहचरितो, सद्धाचरितो, बुद्धिचरितो, वितक्कचरितोति । तत्थ यस्मा रागचरितस्स कुसलप्पवत्तिसमये सद्धा बलवती होति, रागस्स आसन्नगुणत्ता । यथा हि अकुसलपक्खे रागो सिनिद्धो नातिलूखो, एवं कुसलपक्खे सद्धा रागो वत्थुकामे परियेसति, एवं सद्धा सीलादिगुणे । यथा रागो अहितं न परिच्चजति, एवं सद्धा हितं न परिच्चजति, तस्मा रागचरितस्स सद्धाचरितो सभागो । यस्मा पन दोसचरितस्स कुसलप्पवत्तिसमये पञ्ञा बलवती होति, दोसस्स समय का सुझाव देकर उसी समय जाना चाहिये; क्योंकि अनुचित समय पर उपदिष्ट कर्मस्थान मन में बैठाया नहीं जा सकता । यों, यह 'कर्मस्थान-प्रदाता कल्याणमित्र के पास जाकर' की व्याख्या है ।। चर्या - वर्णन १५. अब 'अत्तनो चरियानुकूलं' का वर्णन करेंगे - यहाँ चर्या का तात्पर्य है छह चर्याएँ । वे हैं - १. रागचर्या, २ द्वेषचर्या, ३ मोहचर्या, ४ श्रद्धाचर्या, ५ बुद्धिचर्या एवं ६. वितर्कचर्या । कोई-कोई राग आदि को सम्पृक्त (मिला जुला कर चार अन्य (= १ राग- मोहचर्या, २ द्वेष - मोहचर्या, ३ . रागद्वेषचर्या, ४. राग-द्वेष - मोहचर्या) और वैसे ही श्रद्धा आदि को भी ( मिलाकर) इन आठ के साथ (= पूर्वोक्त चार मिश्रित चर्याओं एवं १ श्रद्धा - बुद्धिचर्या, २ श्रद्धा-वितर्कचर्या, ३. बुद्धि-वितर्कचर्या, ४. श्रद्धा - बुद्धि-वितर्कचर्या -इन कुल आठ चर्याओं के साथ पूर्वोक्त छह को मिलाकर चौदह मानते हैं । किन्तु यदि इस प्रकार भेद बतलाने लगें तो राग आदि को श्रद्धा आदि के साथ भी मिलाकर अनेक चर्याएँ होंगी । इसलिये संक्षेप में छह ही चर्याएँ जाननी चाहियें । चर्या, प्रकृति (= स्वभाव), स्वभावगत विशेषता ( अन्य धर्मों की अपेक्षा रागादि की अधिकता ) - ये सभी समानार्थक (शब्द) हैं। इन चर्याओं के भेद से छह की प्रकार के व्यक्ति भी होते हैं - १. रागचरित, २ द्वेष चरित, ३. मोहचरित, ४. श्रद्धाचरित, ५. बुद्धिचरित एवं ६. वितर्कचरित । इनमें, क्योंकि रागचरित वाले व्यक्ति में जब कुशल चित्त उत्पन्न होता है, तब उसकी श्रद्धा बलवती होती है; क्योंकि वह राग से मिलते-जुलते गुण वाली होती है, इसलिये रागचरित का श्रद्धाचरित समानधर्मा है। जिस प्रकार अकुशल के विषय में राग स्निग्ध होता है, बहुत रूक्ष नहीं, वैसे राग कामसुखों को खोजता है और श्रद्धा भी शील आदि गुणों को खोजती है। जिस प्रकार राग अहित को नहीं छोड़ता, उसी प्रकार श्रद्धा हित को नहीं छोड़ती। अतः रागचरित श्रद्धाचरित का समानधर्मा है !
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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