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विसुद्धिमग्ग नियमं अकत्वा यं वा तं वा परिभुञ्जन्तस्स यथालद्धं उपनामेतब्बं । किं बहुना वुत्तेन? यं तं भगवता "अन्तवासिकेन, भिक्खवे, आचरियम्हि सम्मा वत्तितब्बं । तत्रायं सम्मा वत्तनाकालस्सेव उट्ठाय उपाहना ओमुञ्चित्वा एकंसं उत्तरासङ्गकरित्वा दन्तकट्ठ दातब्बं, मुखोदकं दातब्बं, आसनं पापेतब्बं । सचे यागु होति, भाजनं धोवित्वा यागु उपनामेतब्बा" (वि० ३-५८) ति आदिकं खन्धके सम्मा वत्तं पञत्तं, तं सब्बं पि कातब्बं ।
एवं वत्तसम्पत्तिया गरुं आराधयमानेन सायं वन्दित्वा 'याही' ति विस्सज्जितेन गन्तब्बं । यदा सो 'किस्सागतोसी' ति पुच्छति तदा आगमनकारणं कथेतब्बं । सचे सो नेव पुच्छति, वत्तं पन सादियति, दसाहे वा पक्खे वा वीतिवत्ते एकदिवसं विस्सज्जितेनापि अगन्त्वा ओकासं कारेत्वा आगमनकारणं आरोचेतब्बं । अकाले वा गन्त्वा 'किमत्थं आगतोसी?' ति पुढेन आरोचेतब्बं । सचे सो 'पाते व आगच्छा' ति वदति, पातो व गन्तब्बं।
सचे पनस्स ताय वेलाय पित्ताबाधेन वा कुच्छि परिडव्हति, अग्गिमन्दताय वा भत्तं न जीरति, अफओ वा कोचि रोगो बाधति, तं यथाभूतं आविकत्वा अत्तनो सप्पायवेलं वह तैल आचार्य के अङ्गों पर मला जाने वाला तैल हो तो उसे पैरों पर मलना उचित नहीं होगा। इसलिये सिर पर मलकर फिर कन्धे आदि पर मलना चाहिये। किन्तु यदि आचार्य कहें कि "आयुष्मन्! यह तैल सर्वत्र व्यवहार में आने वाला है, पैरों को भी मल लो" तो थोड़ा सा सिर पर रखकर, पैरों पर मलकर "भन्ते, इस तैल की फोफी को रख रहा हूँ"-ऐसा कहकर, आचार्य के ले लेने पर दे देना चाहिये।
जिस दिन वह पहुँचा हो उसी दिन यह नहीं कहना चाहिये कि-" भन्ते, मुझे कर्मस्थान बतलाइये" यदि आचार्य का कोई स्थायी सेवक हो, तो उससे सेवा का अवसर माँग कर दूसरे दिन से करणीय करना चाहिये। यदि वह माँगने पर भी अवसर न दें, तो अवसर पाने पर स्वयं ही करना चाहिये। सेवा करने वाले आगन्तुक भिक्षु को छोटी, मँझली और बड़ी-तीन आकार की दातौन लाकर देना चाहिये । मुख धोने एवं नहाने के लिये ठण्ढा और गर्म-दोनों प्रकार के जल का प्रबन्ध करना चाहिये। तत्पश्चात् आचार्य ने तीन दिनों तक जो आहार लिया हो, उसी प्रकार का आहार उन्हें प्रतिदिन लाकर देना चाहिये। यदि आचार्य कोई नियम न रखते हुए कुछ भी खा लेते हों, तो जो मिल जाय वही लाकर देना चाहिये। अधिक कहने से क्या लाभ? भगवान् ने-"शिष्य को आचार्य के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिये। अच्छा व्यवहार यह है-ठीक समय पर उठकर, जूते उतार कर, उत्तरासङ्ग को एक कन्धे पर कर, मुख धोने के लिये दतुअन व जल देना चाहिये, आसन बिछाना चाहिये । यदि यवाग हो तो पात्र धोकर यवाग लाकर देना चाहिये" आदि इस प्रकार स्कन्धक (विनयपिटक के महावग्ग) में जो सम्यग्व्यवहार बतलाया है, वह सभी करना चाहिये।
इस प्रकार सेवा-शुश्रूषा से गुरु को प्रसन्न करने वाले को सायङ्काल वन्दना करने के बाद 'जाओ' कहकर विदा कर दिये जाने पर चले जाना चाहिये। जब कि वे पूछे ही नहीं। किन्तु सेवा करवा लें तो दस दिन या पन्द्रह दिन बीत जाने पर, विदा कर दिये जाने पर भी न जाकर, कहने की परिस्थिति बनाकर, आने का कारण कहना चाहिये। या विना समय के ही.जाकर "किसलिये आये
। पछे जाने पर कहना चाहिये। यदि वे कहें कि "प्रातः ही आओ" तो प्रात: ही जाना चाहिये।
यदि उस समय पित्त बिगड़ने से उसके पेट में जलन हो रही हो या अग्निमान्द्य के कारण भोजन न पच रहा हो या कोई दूसरे रोग से पीड़ित हो तो उनसे सच सच बताकर अपने लिये उपयुक्त
हो