________________
३. कम्मट्ठानग्गहणनिद्देस
१३९ - सचे आचरियो दहरतरो होति, पत्तचीवरपटिग्गहणादीनि न सादितब्बानि। सचे वुडतरो होति, गन्त्वा आचरियं वन्दित्वा ठातब्बं । "निक्खिपावुसो, पत्तचीवरं" ति वुत्तेन निक्खिपितब्बं । "पानीयं पिवा" ति वुत्तेन सचे इच्छति पातब्बं । "पादे धोवाही" ति वुत्तेन न ताव पादा धोवितब्बा। सचे हि आचरियेन आभतं उदकं भवेय्य, न सारुप्पं सिया। "धोवाहावुसो,न मया आभतं, अञहि आभतं" ति वुत्तेन पन यत्थ आचरियो न पस्सति, एवरूपे पटिच्छन्ने वा ओकासे , अब्भोकासे विहारस्सा पि वा एकमन्ते निसीदित्वा पादा धोवितब्बा।
सचे आचरियो तेलनाळिं आहरति, उहित्वा उभोहि हत्थेहि सकच्चं गहेतब्बा। सचे हि न गण्हेय्य, "अयं भिक्खु इतो एव पट्ठाय सम्भोगं कोपेती" ति आचरियस्स अञथत्तं भवेय्य । गहेत्वा पन न आदितो व पादा मक्खेतब्बा। सचे हि तं आचरियस्स गत्तब्भज्जनतेलं भवेय्य, न सारुप्पं सिया। तस्मा सीसं मक्खेत्वा खन्धादीनि मक्खेतब्बानि। "सब्बपारिहारिय-तेलमिदं, आवसो, पादे पि मक्खेही" ति वुत्तेन पन थोकं सीसे कत्वा पादे मक्खेत्वा "इमं तेलनाळिं ठपेमि, भन्ते" ति वत्वा आचरिये गण्हन्ते दातब्बा।
आगतदिवसतो पवाय "कम्मवानं मे, भन्ते, कथेथ"इच्चेवं न वत्तब्बं । दतियदिवसतो पन पट्ठाय, सचे आचरियस्स पकतिउपट्ठाको अत्थि, तं याचित्वा वत्तं कातब्बं । सचे याचितो पि नदेति, ओकासे लद्धे येव कातब्बं । करोन्तेन च खुद्दकमज्झिममहन्तानि तीणि दन्तकट्ठानि उपनामेतब्बानि। सीतं उण्हं ति दुविधं मुखधोवनउदकं च न्हानोदकं च पटियादेतब्बं । ततो यं आचरियो तीणि दिवसानि परिभुञ्जति, तादिसमेव निच्चं उपनामेतब्बं ।
उस आचार्य के विहार में प्रवेश करने वाले को रास्ते में ही दातौन तुड़वाकर प्रवेश करना चाहिये; क्योंकि भिक्षु के लिये हरे-भरे वृक्षों से पत्ते आदि तोड़ना वर्जित अकल्प्य है। उसे यह सोचकर कि "कुछ समय विश्राम कर, पैर धोकर, तैल लगाकर आचार्य के पास जाऊँगा", किसी अन्य परिवेण में प्रवेश नहीं करना चाहिये; क्योंकि यदि वहाँ उस आचार्य के विरोधी भिक्षु, उसके आगमन का कारण पूछकर उस आचार्य की निन्दा करते हुए "यदि उनके पास गये तो समझो कि नष्ट हो गये!"-इस प्रकार उसके मन में पश्चात्ताप ( ग्लानि) उत्पन्न कर देंगे। जिससे कि सम्भवतः वह जिज्ञासु आचार्य के पास न जाकर वहीं से वापस लौट सकता है। इसलिये उसे आचार्य का स्थान पूछकर सीधे वहीं जाना चाहिये।
यदि आचार्य उससे आयु में छोटे हों तो उनसे पात्र-चीवर ग्रहण आदि नहीं करवाना चाहिये। यदि उससे बड़े हों, तो जाकर आचार्य की वन्दना कर खड़े हो जाना चाहिये।"आयुष्मन्! पात्र-चीवर रख दो"-ऐसा कहने पर रख देना चाहिये। "जल पी लो"-कहने पर, यदि इच्छा हो तो पी लेना चाहिये। "पैर धो लो"-कहने पर उसी समय नहीं धोना चाहिये; क्योंकि यदि जल आचार्य के द्वारा लाया गया हो, तो उसे उपयोग में लेना उचित नहीं हो सकता। किन्तु "धो लो, आयुष्मन्! यह मेरे द्वारा नहीं, अपितु किसी अन्य द्वारा लाया गया है"-कहने पर जहाँ आचार्य की दृष्टि न पड़ती हो, ऐसे आवरण वाले स्थान पर या विहार के खुले मैदान में ही एकान्त में बैठकर पैर धोना चाहिये।
यदि आचार्य तैल की फोफी लेकर आयें, तो उठकर दोनों हाथों से आदर के साथ लेना चाहिये। यदि ग्रहण नहीं करे तो आचार्य यह अन्यथा भी सोच सकते हैं-"यह भिक्षु अभी से (इसके) उपभोग को बुरा समझता है। किन्तु इसे लेकर पहले पैरों पर ही नहीं मलना चाहिये, क्योंकि यदि