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________________ १३८ विशुद्धिमग्ग होति, तस्स सन्तिके गहेतब्बं । एवरूपो हि तन्तिधरो वंसानुरक्खको पवेणीपालको आचरियो आचरियमतिको व होति, न अत्तनोमतिको होति । तेनेव पोराणकत्थेरा 'लज्जी रक्खिस्सति, लज्ज रखिस्सती' ति तिक्खत्तुं आहंसु । पुब्बे वुत्तखीणासवादयो चेत्थ अत्तना अधिगतमग्गमेव आचिक्खन्ति । बहुस्सुतो पन तं तं आचरियं उपसङ्कमित्वा उग्गहपरिपुच्छानं विसोधितत्ता इतो चितो च सुत्तं च कारणं च सल्लक्खेत्वा सप्पायासप्पायं योजेत्वा गहनट्ठाने गच्छन्तो महाहत्थी वियमहामग्गं दस्सेन्तो कम्मट्ठानं कथेस्सति । तस्मा एवरूपं कम्मट्ठानदायकं कल्याणमित्तं उपसङ्कमित्वा तस्स वत्तपटिपत्तिं कत्वा कम्मट्ठानं गहेतब्बं । सचे पनेतं एकविहारे येव लभति, इच्चेतं कुसलं । नो चे लभति, यत्थ सो वसति, तत्थ गन्तब्बं । गच्छन्तेन च न धोतमक्खितेहि पादेहि उपाहना आरुहित्वा छत्तं गहेत्वा तेलनाळिमधुफाणितादीनि गाहापेत्वा अन्तेवासिकपरिवुतेन गन्तब्बं । गमिकवत्तं पन पूरेत्वा अत्तनो पत्तचीवरं सयमेव गहेत्वा अन्तरामग्गे यं यं विहारं पविसति सब्बत्थ वत्तपटिपत्तिं कुरुमानेन सल्लहुकपरिक्खारेन परमसल्लेखवुत्तिना हुत्वा गन्तब्बं । तं विहारं पविसन्तेन अन्तरामग्गे येव दन्तकट्ठे कप्पियं कारापेत्वा गहेत्वा पविसितब्बं । नच " मुहुत्तं विस्समित्वा पादधोवनमक्खनादीनि कत्वा आचरियस्स सन्तिकं गमिस्सामी" ति अञ्ञ परिवेणं पविसितब्बं । कस्मा ? सचे हिस्स तत्र आचरियस्स विभागा भिक्खू भवेय्युं, ते आगमनकारणं पुच्छित्वा आचरियस्स अवण्णं पकासेत्वा-'नट्ठोसि सचे तस्स सन्तिकं आगतो' ति विप्पटिसारं उप्पादेय्युं, येन ततो व पटिनिवत्तेय्य । तस्मा आचरियस्स वसनट्ठानं पुच्छित्वा उजुकं तत्थेव गन्तब्बं । के न रहने पर दूसरे के समीप ग्रहण करना चाहिये । यदि एकपिटकधर भी न मिले, तो जिसे अट्ठकथा के साथ एक भी संगीति (निकाय) कण्ठस्थ है एवं स्वत: लज्जावान् हो उससे ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार का तन्तिधर ( = बुद्धवचन कण्ठस्थ करने वाला) बुद्ध के वंश का रक्षक, परम्परापालक आचार्य अपने आचार्य की मति के अनुसार चलने वाला होता है, अपनी मति के अनुसार चलने वाला नहीं। इसीलिये प्राचीन समय के स्थविरों ने ऐसे भिक्षु की तरफ सङ्केत करते हुए तीन बार कहा है " लज्जावान् (वंश की रक्षा करेगा, लज्जावान् (वंश की रक्षा करेगा।" पूर्वोक्त क्षीणास्त्रव आदि अपने द्वारा अधिगत (अनुभूत) मार्ग को ही बतलाते हैं । किन्तु जो बहुश्रुत होता है वह इस उस आचार्य के पास जाकर अपने सीखे हुए का एवं प्रश्नोत्तरों (शङ्कासमाधानों) के सहारे इधर उधर से सूत्र एवं तर्क (कारण) का सञ्चय कर, अनुकूल एवं अननुकूल की योजना (=व्यवस्था) कर, महामार्ग (सरल निष्कण्टक मार्ग) दिखलाते हुए, गहन स्थान में जाने वाले हाथी के समान, कर्मस्थान बतलायगा । इसलिये ऐसे कर्मस्थानोपदेष्टा कल्याणमित्र के पास जाकर उसके प्रति करणीय (सेवा-पूजा) करके कर्मस्थान का ग्रहण करना चाहिये । यदि वह उसी विहार में मिल जाय, तब तो बहुत ही अच्छा है। यदि न मिले तो वह जहाँ रहता हो वहाँ जाना चाहिये। जाते समय उसे (जिज्ञासु को) पैर धोकर, तैल लगाकर, जूता पहन, छाता एवं तेल की फोफी, शहद, राब आदि लेकर चलने वाले शिष्यों से घिरे हुए नहीं जाना चाहिये । अपितु जाने के पूर्व अपने कर्त्तव्यों को पूर्ण कर, अपना पात्र चीवर स्वयं ही लेकर एवं बीच रास्ते में जो जो विहार पड़ें, उन सबमें करणीय कर्म वन्दन-पूजन करते हुए, बहुत कम सामान लेकर और परम उपेक्षावृत्ति वाला होकर जाना चाहिये।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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