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________________ ३. कम्मट्ठानग्गहणनिहेस १३७ कल्याणमित्तं ति। "पियो गरु भावनीयो वत्ता च वचनक्खमो। गम्भीरं च कथं कत्ता नो चट्ठाने नियोजको ॥ ति॥ (अं० ३-१७७) एवमादिगुणसमन्नागतं एकन्तेन हितेसिं वुड्डिपक्खे ठितं कल्याणमित्तं। ___ "ममं हि, आनन्द, कल्याणमित्तं आगम्म जातिधम्मा सत्ता जातिया परिमुच्चन्ती" (सं० १-७८) ति आदिवचनतो पन सम्मासम्बुद्धोयेव सब्बाकारसम्पन्नो कल्याणमित्तो। तस्मा तस्मि सति तस्सेव भगवतो सन्तिके गहितकम्मट्ठानं सुगहितं होति। परिनिब्बुते पन तस्मि असीतिया महासावकेसु यो धरति, तस्स सन्तिके गहेतुं वट्टति। तस्मि असति यं कम्मट्ठानं गहेतुकामो होति, तस्सेव वसेन चतुकपञ्चकज्झानानि निब्बत्तेत्वा झानपदट्ठानं विसस्सनं वड्डत्वा आसवक्खयप्पत्तस्स खीणासवस्स सन्तिके गहेतब्बं । किं पन खीणासवो 'अहं खीणासवो' ति अत्तानं पकासेती ति? किं वत्तब्बं? कारकभावं हि जानित्वा पकासेति। ननु अस्सगुत्तत्थेरो आरद्धकम्मट्ठानस्स भिक्खुनो 'कम्मट्ठानकारको अयं' ति जानित्वा आकासे चम्मखण्डं पापेत्वा तत्थ पल्लङ्केन निसिन्नो कम्मट्ठानं कथेसी ति! तस्मा सचे खीणासवं लभति, इच्चेतं कुसलं। नो चेलभति, अनागामिसकदागामिसोतापन्नझानलाभिपुथुज्जनतिपिटकधरद्विपिटकधरएकपिटकघरेसु पुरिमस्स पुरिमस्स सन्तिके। एकपिटकधरे पि असति, यस्स एकसङ्गीति पि अट्ठकथाय सद्धिं पगुणा, सयं च लजो कल्याणमित्र कौन है? ___ "प्रिय, गौरव एवं सम्मान का पात्र, धर्मवक्ता, वचनों को सहने या गम्भीर प्रवचन करने वाला एवं अनुचित कार्यों में न लगाने वाला" आदि भगवदुक्त गुणों से युक्त, पूर्णरूप से हितैषी एवं सब की उन्नति (वृद्धि) चाहने वाला कल्याणमित्र कहा जाता है। "आनन्द, मुझ कल्याणमित्र के पास आकर उत्पत्ति स्वभाव वाले सत्त्व उत्पत्ति से विमुक्त होते हैं" आदि भगवद्वचनों के अनुसार तो सम्यक्सम्बुद्ध ही सर्वाकारसम्पन्न (=उपर्युक्त सभी विशेषताओं से सम्पन्न) कल्याणमित्र हैं। इसलिये उनके जीते जी (उपस्थित रहते) उन्हीं से ग्रहण किया गया कर्मस्थान ही वस्तुतः 'सम्यक्तया ग्रहण किया गया' कहा जा सकता है। उनके परिनिवृत हो जाने पर, अस्सी महाश्रावकों में से जो जीवित हो, उनके समीप ग्रहण करना चाहिये। उनके भी जीवित न रहने पर, जिस कर्मस्थान को ग्रहण करने की इच्छा हो, उसी के अनुसार चार एवं पाँच ध्यान मानने वाले नय के अनुसार क्रमशः चतुष्क पञ्चक ध्यानों को उत्पन्न कर, ध्यान की आसन्नकारण विपश्यना का वर्धन कर, जिसके आस्रव क्षीण हो चुके हों ऐसे क्षीणास्रव भिक्षु से ग्रहण करना चाहिये। प्रश्न- किन्तु क्या क्षीणास्रव "मैं क्षीणास्रव हूँ" इस प्रकार अपने को स्वयं प्रकाशित (घोषित) करता है? इस विषय में क्या करना चाहिये? उत्तर- जब, वह जान लेता है कि उसकी शिक्षा का पालन किया जायगा, वह (स्वयं को) प्रकाशित करता है। क्या अश्वगुप्त स्थविर ने कर्मस्थान का आरम्भ कर चुके भिक्षु के लिये "यह कर्मस्थान का पालन करने वाला है"-ऐसा जानकर आकाश में चर्मखण्ड विछाकर, उस पर पद्मासन से बैठ कर एवं इस प्रकार ऋद्धिबल का प्रदर्शन करते हुए कर्मस्थान नहीं बतलाया था! इसलिये क्षीणास्रव भिक्षु मिल जाय तो बहुत अच्छा है। यदि न मिलें तो अनागामी, सकृदागामी, स्रोतआपन्न, ध्यानलाभी पृथग्जन, त्रिपिटकधर, द्विपिटकधर या एकपिटकधर में से क्रमशः किसी एक
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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