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विसुद्धिमग्ग होन्तु अब्यापज्जा' ति मेत्ता भावेतब्बा। ततो सीमट्टकदेवतासु, ततो गोचरगामम्हि इस्सरजने, ततो तत्थ मनुस्से उपादाय सब्बसत्तेसु। सो हि भिक्खुसङ्के मेत्ताय सहवासीनं मुदुचित्ततं जनेति। अथस्स ते सुखसंवासा होन्ति । सीमट्ठकदेवतासु मेत्ताय मुदुकतचित्ताहि देवताहि धम्मिकाय रक्खाय सुसंविहितरक्खो होति। गोचरगामम्हि इस्सरजने मेत्ताय मुदुकतचित्तसन्तानेहि इस्सरेहि धम्मिकाय रक्खाय सुरक्खितपरिक्खारो होति । तत्थ मनुस्सेसु मेत्ताय पसादितचित्तेहि तेहि अपरिभूतो हुत्वा विचरति। सब्बसत्तेसु मेत्ताय सब्बत्थ अप्पटिहतचारो होति।
मरणस्सतिया पन 'अवस्सं मया मरितब्ब' ति चिन्तेन्तो अनेसनं पहाय उपरूपरि वड्डमानसंवेगो अनोलीनवुत्तिको होति । असुभसापरिचितचित्तस्स पनस्स दिब्बानि पि आरम्मणानि लोभवसेन चित्तं न परियादियन्ति।
एवं बहूपकारत्ता सब्बत्थ अत्थयितब्बं इच्छितब्बं ति च अधिप्पेतस्स योगानुयोगकम्मस्स ठानं चा ति सब्बत्थककम्मट्ठानं ति वुच्चति ।
चत्तालीसाय पन कम्मट्ठानेसु यं यस्स चरियानुकूलं, तं तस्स निच्चं परिहरितब्बत्ता उपरिमस्स च उपरिमस्स भावनाकम्मस्स पदट्ठानत्ता पारिहारियकम्मट्ठानं ति वुच्चति । इति इमं दुविधं पि कम्मट्ठानं यो देति अयं कम्मट्ठानदायको नाम, तं कम्मट्ठानदायकं । विशेष में रहने वाले भिक्षुसङ्घ के प्रति 'ये सुखी हो, कष्टरहित हों'-इस प्रकार मैत्रीभावना करनी चाहिये । तत्पश्चात् उस सीमा के भीतर रहने वाले देवताओं के प्रति, तत्पश्चात् वहाँ के सभी मनुष्यों एवं उन मनुष्यों पर निर्भर रहने वाले सभी प्राणियों के प्रति । वह भिक्षुसङ्घ के प्रति मैत्री भावना का अभ्यास करने के कारण अपने साथ रहने वालों के चित्त में मृदुता उत्पन्न करता है। अतः उसके लिये वे सभी सुखपूर्वक साथ रहने वाले बन जाते है। उस सीमा विशेष में रहने वाले देवताओं के प्रति मैत्री के कारण मृदुचित्त देवता उसकी धर्मसम्मत सुरक्षा करते है। जहाँ वह भिक्षाटन करता है, उस ग्राम के प्रमुख व्यक्तियों के प्रति मैत्री के कारण, मृदु चित्तसन्तान (कोमल विचारों) वाले वे प्रमुख मनुष्य उसकी धर्मसम्मत सुरक्षा करते हैं, जिससे उसका परिवार सुरक्षित होता है। वह वहाँ के मनुष्यों के प्रति मैत्री के कारण, उन प्रसन्न-चित्त मनुष्यों द्वारा अपमानित न होते हुए, विचरण करता है। सभी प्राणियों के प्रति मैत्री के कारण सर्वत्र निर्बाध रूप से विहार करता है।
वह साधक मरण-स्मृति द्वारा “मैं अवश्य मरूँगा"-ऐसा सोचते हुए, अनुचित अन्वेषण को छोड़कर क्रमशः वर्धमान संवेग से युक्त एवं रागरहित जीवन जीने वाला वाला होता है। जिस व्यक्ति का चित्त अशुभसंज्ञा से परिचित (=उसका अभ्यासी) होता है, उसके चित्त में तो दिव्य स्वर्ग आदि आलम्बन भी लोभ उत्पन्न नहीं कर सकते!
इस प्रकार उन्हें मैत्री, मरणस्मृति एवं अशुभसंज्ञा को सबके लिये उपयोगी कहा जाता है, क्योंकि इनके बहु-उपकारी होने से सर्वत्र इनकी आवश्यकता पड़ती है एवं कर्मस्थान कहा जाता है। ये अभिप्रेत योग (=समाधि) में अनुयोग (संयुक्त) करने वाले कर्म के स्थान है। (१)
विशेष (=पारिहारिक) कर्मस्थान वह है जो कि किसी के लिये उसकी चर्या के अनुकूल किसी एक कर्मस्थान के रूप में चालीस कर्मस्थानों में से चुना गया यह विशेष (=परिहार्य-स्वीकार्य) है, क्योकि वह उस भिक्षु के लिये इसे सर्वदा साथ-साथ लिये रहना आवश्यक होता है एवं क्योंकि यह उत्तरोत्तर विकसित होने वाले भावनाकर्म का आसन्न कारण है। इस प्रकार इस द्विविध कर्मस्थान को जो देता है वह कर्मस्थान-प्रदाता है। (२)