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________________ ३. कम्मट्ठानग्गहणनिद्देस १३५ भणथ? ननु मया तुम्हाकमेव सन्तिके सुतं ! किमहं तुम्हेहि अज्ञातं कथेस्सामी ?" ति ततो नं थेरो " अञ्ञ एस, आवुसो, गतकस्स मग्गो नामा" ति आह । अभयत्थेरो किर तदा सोतापन्नो होति । अथस्स सो कम्मट्ठानं दत्वा आगन्त्वा लोहपासादे धम्मं परिवत्तेन्तो थेरो परिनिब्बुतो ति अस्सोसि । सुत्वा" आहरथावुसो चीवरं " ति चीवरं पारुपित्वा " अनुच्छविको, आवुसो, अम्हाकं आचरियस्स अरहत्तमग्गो । आचरियो नो, आवुसो, उजु आजानीयो । सो अत्तनो धम्मन्तेवासिकस्स सन्तिके तट्टिकाय निसीदित्वा 'महं कम्मट्ठानं कथेही' ति आह । अनुच्छविको, आवुसो, थेरस्स अरहत्तमग्गो" ति । एवरूपानं गन्धो पलिबोधो न होती ति । (९) इद्धीति । पोथुज्जनिका इद्धि । सा हि उत्तानसेय्यकदारको विय तरुणसस्सं विय च दुपरिहारा होति । अप्पमत्तकेनेव भिज्जति । सा पन विपस्सनाय पलिबोधो होति, न समाधिस्स, समाधिं पत्वा पत्तब्बत । तस्मा विपस्सनत्थिकेन इद्धिपलिबोधो उपच्छिन्दितब्बो, इतरेन अवसेसा ति । ( १० ) अयं ताव पलिबोधकथाय वित्थारो ॥ कम्मट्ठानदायककथा १४. कम्मट्ठानदायकं कल्याणमित्तं उपसङ्क्रमित्वा ति । एत्थ पन दुविधं कम्मट्ठानं - सब्बत्थककम्मट्ठानं, पारिहारियकम्मट्ठानं च । तत्थ सब्बत्थककम्मट्ठानं नाम भिक्खुसङ्घादीसु मेत्ता मरणस्सति च, असुभसञ्ञा ति पि एके। कम्मट्ठानिकेन हि भिक्खुना पठमं ताव परिच्छिन्दित्वा सीमट्ठकभिक्खुसङ्घे 'सुखिता है।" अभय स्थविर उस समय स्रोतआपन्न हो चुके थे। तब उन्होंने कर्मस्थान देकर वापस आकर लौहप्रासाद में धर्म का पारायण करते हुए 'स्थविर परिनिवृत्त हो गये' ऐसा सुना । सुनकर "आयुष्मन् ! चीवर लाओ" ऐसा कहकर प्रस्थान के निमित्त चीवर ओढ़कर कहा- "आयुष्मन् ! अर्हत् मार्ग हमारे आचार्य को शोभा देता था। आयुष्मन्, हमारे आचार्य सरल और कुलीन थे । उन्होंने अपने धर्मशिष्य के पास चटाई पर बैठकर "मेरे लिये कर्मस्थान बतलाओ" ऐसा कहा था। आयुष्मन् ! इस स्थविर को अर्हत् मार्ग ही शोभा देता था । (ग) इस प्रकार के साधकों के लिये ग्रन्थ-परिबोध नहीं होता । (९) ऋद्धि- अर्थात् पृथग्जनों की ऋद्धि । उत्तान सोने वाले शिशु (नवजात शिशु जो करवट नहीं बदल सकता) के समान और नये पौधे के समान उसकी रक्षा करने में कठिनाई होती है। अल्पमात्र असावधानी से भी वह नष्ट हो जाता है। किन्तु वह विपश्यना के लिये परिबोध होती है, समाधि के लिये नहीं; क्योंकि वह समाधि द्वारा ही प्राप्त होती है। इसलिये विपश्यना के इच्छुक को ऋद्धि-परिबोध नष्ट करना चाहिये, अन्य को अवशिष्ट ९ पलिबोधों को दूर करना चाहिये ।। (१०) यों यह परिबोध का विस्तृत वर्णन पूर्ण हुआ ।। कर्मस्थान- प्रदाता (कम्मट्ठानदायक ) कर्मस्थान देने वाले कल्याणमित्र के पास जाकर- कर्मस्थान दो प्रकार का होता है- १. सबके लिये उपयोगी (= सर्वार्थक) कर्मस्थान एवं २. विशेष कर्मस्थान । 'सबके लिये उपयोगी कर्मस्थान है - भिक्षुस आदि के प्रति मैत्री एवं मरणानुस्मृति । कोई कोई अशुभ संज्ञा को भी सबके लिये मानते हैं। कर्मस्थान ग्रहण करने वाले भिक्षु को पहले सीमित रूप में मैत्री भावना करते हुए सीमा
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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