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________________ १३४ विसुद्धिमग्ग "किं कारणा" ति? "परियत्ति, भन्ते परिवत्तेस्सामी' ति। "आवुसो अभय, आचरिया इदं पदं कथं वदन्ती" ति? "एवं वदन्ति, भन्ते" ति। थेरो 'हुं' ति पटिबाहि । पुन सो अजेन अञ्जन परियायेन "एवं वदन्ति, भन्ते" ति तिक्खत्तुं आह । थेरो सब्बं "हुं" ति पटिवाहित्वा "आवुसो, तया पठमे कथितो एव चाचरियमग्गो, आचरियमुखतो पन अनुग्गहितत्ता, 'एवं आचरिया वदन्ती' ति सण्ठातुं नासक्खि। गच्छ, अत्तनो आचरियानं सन्तिके सुणाही" ति। "कुहिं, भन्ते, गच्छामी" ति? "गङ्गाय परतो रोहणजनपदे तुलाधारपब्बतविहारे सब्बपरियत्तिको महाधम्मरक्खितत्थेरो नाम वसति, तस्स सन्तिकं गच्छा" ति। "साधु, भन्ते" ति थेरं वन्दित्वा पञ्चहि भिक्खुसतेहि सद्धिं थेरस्स सन्तिकं गन्त्वा वन्दित्वा निसीदि। थेरो "कस्मा आगतोसी" ति पुच्छि।"धम्मं सोतुं, भन्ते" ति। "आवुसो अभय, दीघमज्झिमेसु मं कालेन कालं पुच्छन्ति । अवसेसं पन मे तिसमत्तानि वस्सानि न ओलोकितपुब्बं । अपि च त्वं रत्तिं मम सन्तिके परिवत्तेहि। अहं ते दिवा कथयिस्सामा" ति सो "साधु, भन्ते" ति तथा अकासि। परिवेणद्वारे महामण्डपं कारेत्वा गामवासिनो दिवसे दिवसे धम्मसवनत्थाय आगच्छन्ति। थेरो रत्तिं परिवत्ति । तं दिवा कथयन्तो अनुपुब्बेन देसनं निट्ठपेत्वा अभयत्थेरस्स सन्तिके तट्टिकाय निसीदित्वा "आवुसो मय्हं कम्मट्ठानं कथेही" ति आह। "भन्ते किं यह शिक्षा है? आप अपने ही आचार्य की शिक्षा की व्याख्या करे, अन्यथा हम बोलने नहीं देंगे।" जब वे उपाध्याय के पास गये तो उन्होंने भी पूछा-"तुमने भेरी बजवायी (घोषणा करवायी) है?" "हाँ, भन्ते!" "किसलिये?" "भन्ते, त्रिपिटक की व्याख्या करूँगा"। "आयुष्मन् अभय! आचार्य इस पद के विषय में क्या कहते हैं?" "भन्ते, यह कहते हैं।" स्थविर ने 'हूँ' कहकर खण्डन किया। फिर उन्होंने तीन बार भिन्न-भिन्न प्रकार से 'यह कहते हैं, भन्ते" कहा । स्थविर ने सभी का 'हूँ' कहकर खण्डन किया एवं कहा-"आयुष्मन्! तुमने पहले जो कहा है, वहीं आचार्य द्वारा समर्थित मार्ग है; किन्तु क्योंकि तुमने आचार्य के मुख से विषय का ग्रहण नहीं किया, इसलिये निश्चयपूर्वक नहीं कह पाये कि "आचार्य यह कहते हैं। जाओ और अपने आचार्य से इसे सीखो।" "भन्ते, कहाँ जाऊँ?" "गङ्गापार रोहण जनपद में तुलाधारपर्वतविहार में सभी पिटकों में निष्णात महाधर्मरक्षित नामक स्थविर रहते हैं, उनके पास जाओ।" वे "बहुत अच्छा, भन्ते" कहकर स्थविर की वन्दना कर पाँच सौ भिक्षुओं के साथ स्थविर के पास जाकर, वन्दना कर, बैठ गये । स्थविर ने पूछा-"किसलिये आये हो?" "भन्ते, धर्म-श्रवण करने के लिये।" ___ "आयुष्मन् अभय, शिष्यगण मुझसे दीघनिकाय और मज्झिमनिकाय समय-समय पर पूछते रहते है इसलिये वे स्मृति में है, किन्तु अवशिष्ट निकायों को तो मैंने तीस वर्षों तक देखा भी नहीं है। फिर भी तुम रात्रि के समय उन्हें मेरे समीप पढ़ो। प्रातः मैं तुम्हे उनका तात्पर्य बतलाऊँगा।" उन्होंने "बहुत अच्छा, भन्ते" कहकर वैसा ही किया। महाधर्मरक्षित के परिवेण के द्वार पर ग्रामवासी एक विशाल मण्डप बनवाकर प्रतिदिन धर्मश्रवण के लिये आया करते थे। अभय स्थविर रात्रि में पढ़ते थे। दूसरे दिन कथा कहते हुए क्रमश देशना समाप्त कर अभय स्थविर के समीप चट्टी (=चटाई) पर बैठकर महाधर्मरक्षित स्थविर ने कहा"आयुष्मन्! मेरे लिये कर्मस्थान कहो।" "भन्ते, क्या कह रहे हैं? क्या मैंने आप से ही श्रवण नहीं किया है? मै आपको ऐसा क्या बतलाऊँगा जो आपको ज्ञान नहीं है।" तब स्थविर ने कहा"आयुष्मन्! यह मार्ग उस व्यक्ति के लिये कुछ और ही महत्त्व रखता है जो वास्तव में इस पर चला
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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