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________________ ३. कम्मट्ठानग्गहणनिद्देस इतरस्स। तत्रिमानि वत्थूनि-मज्झिमभाणकदेवत्थेरो किर मलयवासिदेवत्थेरस्स सन्तिकं गन्त्वा कम्मट्ठानं याचि। थेरो"कीदिसोसि, आवुसो, परियत्तियं" ति पुच्छि। "मज्झिमो मे, भन्ते, पगुणो" ति।"आवुसो, मज्झिमो नामेसो दुप्परिहारो, मूलपण्णासं सज्झायन्तस्स मज्झिमपण्णासको आगच्छति, तं सज्झायन्तस्स उपरिपण्णासको, कुतो तुम्हं कम्मट्ठानं" ति? "भन्ते, तुम्हाकं सन्तिकं कम्मट्ठानं लभित्वा पुन न ओलोकेस्सामी" ति कम्मट्ठानं गहेत्वा एकूनवीसतिवस्सानि सज्झायं अकत्वा वीसतिमे वस्से अरहत्तं पत्वा सज्झायतत्थाय आगतानं भिक्खूनं "वीसति मे, आवुसो, वस्सानि परियत्तिं अनोलोकेन्तस्स, अपि च खो कतपरिचयो अहमेत्थ, आरभथा" ति वत्वा आदितो पट्ठाय याव परियेसना एकब्यञ्जने पिस्स कला नाहोसि। करुळियगिरिवासिनागत्थेरो पि अट्ठारसवस्सानि परियत्तिं छड्दुत्वा भिक्खून धातुकथं उद्दिसि। तेसं गामवासिकत्थेरेहि सद्धिं संसन्देन्तानं एकपञ्हो पि उप्पटिपाटिया आगतो नाहोसि। महाविहारे पि तिपिटकचूळाभयत्थरो नाम 'अट्ठकथं अनुग्गहेत्वा व पञ्चनिकायमण्डले तीणि पिटकानि परिवत्तेस्सामी' ति सुवण्णभेरि पहरापेसि। भिक्खुसङ्गो "कतमाचरियानं उग्गहो, अत्तनो आचरियुग्गहं येव वदतु, इतरथा वत्तुं न देमा" ति आह । उपज्झायो पिनं अत्तनो उपट्टानं आगतं पुच्छि-"त्वं आवुसो, भेरि पहरापेसी"ति? "आम, भन्ते"। ग्रन्थ- ग्रन्थों के प्रति उत्तरदायित्व (=पर्यत्तिहरण)। वह उसके लिये परिबोध होता है जो सदा परायण आदि में लगा रहता है, अन्य के लिये नहीं। इस विषय में ये कथाएँ (दृष्टान्त) हैं-कहते हैं कि मज्झिमभाणक (=मज्झिमनिकाय का पारायण करने वाले) देव' स्थविर ने मलय (=वर्तमान लङ्का का त्रिकोणामलय प्रदेश) निवासी देव स्थविर के पास जाकर कर्मस्थान (=समाधि के आलम्बन) की याचना की।स्थविर ने पूछा-"आयुष्मन्! ग्रन्थों में तुम्हारी कैसी गति है?""भन्ते, मुझे मज्झिमनिकाय कण्ठस्थ है""आयुष्मन्! मज्झिम एक कठिन उत्तरदायित्व है। जब तक कोई प्रथम पचास (मूलपण्णासक) याद करता है, तभी बीच के पचास (मज्झिमपण्णासक) सामने आ जाते हैं। फिर उन्हें याद करते हुए ही बाद के अन्तिम पचास (उपरिपण्णासक)! तुम्हारे पास कर्मस्थान (का अवकाश) कहाँ है?" उसने "भन्ते, आपसे कर्मस्थान पाकर फिर उन ग्रन्थों को नहीं देखूगा" इस प्रकार कहकर, कर्मस्थान हण कर उन्नीस वर्ष तक पारायण नहीं किया । एवं बीसवें वर्ष में अर्हत्त्व प्राप्त कर लिया। इसके पश्चात् रायण के लिये आये हुए भिक्षुओं से कहा-"आयुष्मन्! वर्षों से मैंने इन ग्रन्थों को देखा नहीं है, फिर मी उनके विषय में ज्ञान है, इसलिये आरम्भ करो" यो प्रारम्भ से लेकर अन्ततक एक भी व्यअन अक्षर) के विषय में उन्हें सन्देह हिचकिचाहट नहीं हुई। (क) करुळियगिरिवासी नागस्थविर ने भी अट्ठारह वर्ष तक ग्रन्थों को छोड़ देने पर भी भिक्षुओं को धातुकथा का पारायण करके सुनाया। जब उन्होंने ग्रामवासी भिक्षुओं से इसकी परीक्षा करवायी तो पाया कि एक भी प्रश्न ऐसा नहीं था जो (पारायण-क्रम) से उधर-उधर हो। (ख) महाविहार में भी त्रिपिटक चूडाभय नामक स्थविर ने "अट्ठकथा (=अर्थकथा) को विना पढ़े ही पञ्चनिकाय-मण्डल (दीघनिकाय आदि पाँच निकायों के विशेषज्ञों के मण्डल) में तीन पिटकों की व्याख्या करूँगा"-इस प्रकार कहते हुए स्वर्ण-भेरी बजवायी। भिक्षुसङ्घ ने कहा-"किन आचार्यों की १.किसी-किसी पुस्तक में 'देव' के स्थान में 'रेवत' शब्द भी मिलता है।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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