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विसुद्धिमग्ग
तथा पब्बज्जाचरियो उपसम्पदाचरियो सद्धिविहारिको उपसम्पादितपब्बाजितअन्तेवासिकसमानुपज्झायका च । निस्सयाचरियउद्देसाचरियनिस्सयन्तेवासिकउद्देसन्तेवासिकसमानाचरिका पन याव निस्सयउद्देसा अनुपच्छिन्ना, ताव पटिजग्गितब्वा । पहोन्तेन ततो उद्धं पि पटिजग्गितब्बा एव ।
मातापित्सु उपज्झाये विय पटिपज्जितब्बं । सचे पि हि ते रज्जे ठिता होन्ति, पुत्ततो च उपट्ठानं पच्चासीसन्ति, कातब्बमेव । अथ तेसं भेसज्जं नत्थि, अत्तनो सन्तकं दातब्बं । असति भिक्खाचरियाय परियेसित्वा पि दातब्बमेव । भातुभगिनीनं पन तेसं सन्तकमेव योजेत्वा दातब्बं । सचे नत्थि अत्तनो सन्तकं तावकालिकं दत्वा पच्छा लभन्तेन गहितब्बं । अलभन्तेन न चोदेतब्बा । अञ्ञातकस्स भगिनिसामिकस्स भेसज्जं नेव कातुं न दातुं वट्टति । " तुम्हं सामिकस्स देही " ति वत्वा पन भगिनिया दातब्बं । भातुजायाय पि एसेव नयो । तेसं पन पुत्ता इमस्स जातका एवा ति तेसं कातुं वट्टतीति । (७)
आबाधोति । यो कोचि रोगो सो बाधयमानो पलिबाधो होति, तस्मा भेसज्जकरणेन उपच्छिन्दितब्बो । सचे पन कतिपाहं भेसज्जं करोन्तस्स पि न वूपसम्मति, " नाहं तुम्हं दासो, न भतको, तं येवहि पोसेन्तो अनमतग्गे संसारवट्टे दुक्खं पत्ता " ति अत्तभावं गरहित्वा समणधम्मो कातब्बो ति । (८)
गोति । परियत्तिहरणं । तं सज्झायादीहि निच्चब्यावटस्सेव पलिबोधो होति, न
उनकी सेवा करनी चाहिये। इसी प्रकार प्रव्रज्या देने वाले आचार्य....उपसम्पदा देने वाले आचार्य. साथ-साथ विहार करने वाले भिक्षु.... जिन्हें प्रव्रज्या दी है...... जिन्हें उपसम्पदा दी है-ऐसे शिष्य और समान उपाध्याय के शिष्य....यदि रोगी ... सेवा करनी चाहिये, किन्तु निश्रय देने वाले आचार्य, पाठ कराने वाले आचार्य, वह शिष्य जिसे निश्रय दिया हो एवं समान आचार्य के शिष्य के विषय में विधान है कि जब तक निश्रय एवं पाठ चलता रहे तब तक या आवश्यकता हो तो बाद में भी सेवा-शुश्रूषा करनी ही चाहिये ।
माता-पिता की भी, उपाध्याय के ही समान सेवा - शुश्रूषा करनी चाहिये । यदि वे उसी राज्य में रहते हों, जिसमें पुत्र रहता है और पुत्र से सेवा की अपेक्षा करते हों, तो सेवा करनी ही चाहिये । यदि उनके पास औषध नहीं है तो अपने पास से देनी चाहिये। अपने पास न होने पर भिक्षाटन कर उसे खोज कर भी देनी चाहिये। किन्तु भाई या बहन को उन्हीं के पास की औषधि देनी चाहिये। यदि उनके पास न हो, तो अपने पास से उस समय के लिये देकर बाद में उसके बदले में दूसरी ले लेनी चाहिये । किन्तु यदि वापस न मिले तो देने के लिये बाध्य नहीं करना चाहिये। जिसके साथ रक्त का सम्बन्ध नहीं है-ऐसी बहन के पति के लिये न तो औषध बनानी चाहिये और न ही देनी चाहिये। किन्तु "अपने स्वामी को दे दो”- ऐसा कहकर बहन को देना चाहिये । भ्रातृजाया के विषय में भी यही नियम है । किन्तु उसका पुत्र तो इसका रक्त सम्बन्धी ( = ज्ञाति) ही है, इसलिये उसके लिये औषध बनाना विहित है । (७)
आबाध - किसी भी प्रकार का रोग। जब यह रोग पीड़ित करता है तब परिबोध होता है। इसलिये, चिकित्सा करके इसे नष्ट करना चाहिये । यदि कुछ दिनों तक चिकित्सा करने पर भी रोग शान्त न हो तो स्वयं की इस प्रकार भर्त्सना कर उसकी उपेक्षा करते हुए श्रमण-धर्म का ही पालन करना चाहिये - " न मैं तुम्हारा दास हूँ, न ही वेतनभोगी सेवक हूँ, तुम्हें ही पालते हुए मैंने इस अनादि संसार में अपार दुःख भोगा है" (८)