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३. कम्मट्ठानग्गहणनिहेस
१३१ एवं अलभमानेन "मय्हं, आवुसो, एकं किच्चं अस्थि, तुम्हे यथाफासुकट्ठानानि गच्छथा" ति गणं पहाय अत्तनो कम्मं कत्तब्बं ति। (४)
कम्मं ति नवकम्मं । तं करोन्तेन वड्डकीआदीहि लद्धालद्धं जानितब्बं, कताकते उस्सुकं आपजितब्बं ति सब्बदा पलिबोधो होति । सो पि एवं उपच्छिन्दितब्बो-सचे अप्पं अवसिटुं होति निट्ठपेतब्बं । सचे बहुं सङ्घिकं चे नवकम्मं, सङ्घस्स वा सङ्घभारहारकभिक्खून वा निय्यादेतब्बं । अत्तनो सन्तकं च, अत्तनो भारहारकानं निय्यादेतब्बं । तादिसे अलभन्ते सङ्घस्स परिच्चजित्वा गन्तब्बं ति। (५)
अद्धानं ति मग्गगमनं । यस्स हि कत्थचि पब्बज्जापेक्खो वा होति, पच्चयजातं वा किञ्चि लद्धब्बं होति।सचेतं अलभन्तो न सक्कोति अधिवासेतुं, अरनं पविसित्वा समणधम्म करोन्तस्स पि गमिकचित्तं नाम दुप्पटिविनोदनीयं होति, तस्मा गन्त्वा तं किच्च तीरेत्वा व समणधम्मे उस्सुकं कातब्बं ति। (६)
___ञाती ति विहारे आचरियुपज्झायसद्धिविहारिकअन्तेवासिकसमानुपज्झायकसमानाचरियका, घरे माता पिता भाता ति एवमादिका। ते गिलाना इमस्स पलिबोधा होन्ति, तस्मा सो पलिबोधो उपट्ठहित्वा तेसं पाकतिककरणेन उपच्छिन्दितब्बो। • तत्थ उपज्झायो ताव गिलानो सचे लहुं न वुट्ठाति, यावजीवं पि पटिजग्गितब्बो। ही रहने वाले किसी दूसरे गणवाचक (=कक्षाध्यापक) के पास जाकर, "आयुष्मन्! अध्यापन आदि के द्वारा इनकी सहायता करें"-यों कहना चाहिये। इस प्रकार का गणवाचक न मिले तो छात्रों को "आयुष्मानो! मुझे एक कार्य करना है, तुम लोगों को जहाँ अध्ययन आदि की सुविधा हो, वहाँ जाओ" कहकर गण को छोड़ अपने श्रमण-धर्म के पालन में लग जाना चाहिये ।। (४)
कर्म- (निर्माण कार्य)। उस (निर्माण आदि कर्म) को करने वाले के लिये यह जानना आवश्यक हो जाता है कि बढ़ई आदि को क्या (सामग्री) प्राप्त है, क्या नहीं? क्या किया गया है, क्या नहीं?-इस विषय में उत्सुकता रखनी पड़ती है। यों निर्माण-कर्म सर्वदा परिबोध होता है। उसको भी इस प्रकार नष्ट करना चाहिये-यदि कुछ ही कार्य अवशिष्ट हो तो उसे सम्पन्न कर देना चाहिये। यदि अधिक (अवशिष्ट) हो एवं यदि सङ्घ के लिये निर्माण कार्य चल रहा हो, तो सङ्घ को या सङ्घ के कार्यों का उत्तरदायित्व वहन करने वाले अन्य भिक्षुओं को या अपने किसी परिचित को सौंप देना चाहिये। यदि ऐसे लोग न मिले तो निर्माणाधीन वस्तु सद्ध को दान कर, चले जाना चाहिये ।। (५)
मार्ग- मार्गगमन । यदि किसी (भिक्षु) से कोई व्यक्ति कहीं प्रव्रज्या करने की अपेक्षा कर रहा हो या उस भिक्षु को कोई चीवरादि प्रत्यय प्राप्त करना हो और उसे प्राप्त किये विना रहा न जा सके तो यह उसके लिये परिबोध होता है, क्योंकि भले ही वह जगल में जाकर श्रमण-धर्म (=ध्यान आदि) करने लगे, किन्तु उस यात्रा के विषय में चिन्तित मन को नियन्त्रित करना सरल नहीं होगा। इसलिये पहले जहाँ जाना हो वहाँ जाकर, उस कार्य को पूर्ण कर फिर श्रमण-धर्म के प्रति उत्सक होना चाहिये।। (६)
ज्ञाति-विहार में आचार्य, उपाध्याय, साथ विहार करने वाले भिक्षु, शिष्य, एक उपाध्याय के शिष्य , एक आचार्य के शिष्य, घर में माता-पिता, भाई आदि । इनके रोगी होने पर वे इस भिक्षु के लिये परिबोध होते हैं। इसलिये उनकी सेवा-शुश्रूषा करके, उन्हें पहले जैसा (नीरोग) करके उस परिबोध को नष्ट करना चाहिये।
इनमें, उपाध्याय यदि रोगी होने पर शीघ्र अच्छे नहीं होते तो वे जब तक जिये तब तक