________________
१३०
विशुद्धिमग्ग
" मय्हं पुत्तसदिसं वत मञ्जे कायसक्खि कत्वा भगवा रथविनीतपटिपदं (म० १ - १९२), नालकपटिपदं (खु०१-३७७), तुवट्टकपटिपदं (खु० १ - ४१०) चतुपच्चयसन्तोसभावनारामतादीपकं महाअरियवंसपटिपदं (अं० २ - ३०) च देसेसि। विजातमातुया नाम गेहे तेमासं भुञ्जमानो पि' अहं पुत्तो त्वं माता' ति न वक्खति, अहो अच्छरियमनुस्सो" ति । एवरूपस्स मातापितरो पि पलिबोधा न होन्ति; पगेव अञ्यं उपट्ठाकंकुलं ति । (२)
लाभो ति । चत्तारो पच्चया । ते कथं पलिबोधा होन्ति ? पुञ्ञवन्तस्स हि भिक्खुनो गतगतट्ठाने मनुस्सा महापरिवारे पच्चये देन्ति । सो तेसं अनुमोदन्तो धम्मं देसेन्तो समणधम्मं कातुं ओकासं न लभति । अरुणुग्गमनतो याव पठमयामो, ताव मनुस्ससंसग्गो न उपच्छिज्जति । पुन बलवपच्चूसे येव बाहुल्लिकपिण्डपातिका आगन्त्वा " भन्ते, असुको उपासको उपासिका अमच्चो अमच्चधीता तुम्हाकं दस्सनकामा" ति वदन्ति। सो 'गण्ह, आवुसो, पत्तचीवरं ' ति गमनसज्ज व होती ति निच्चब्यावटो। तस्सेव ते पच्चया पलिबोधा होन्ति । तेन गणं पहाय यत्थ नं न जानन्ति, तत्थ एककेन चरितब्बं । एवं सो पलिबोधो उपच्छिज्जती ति । (३) गणोति । तन्तिकगणो वा आभिधम्मिकगणो वा । यो तस्स उद्देसं वा परिपुच्छं वा देन्तो समणधम्मस्स ओकासं न लभति, तस्सेव गणो पलिबोधो होति, तेन सो एवं उपच्छिन्दितब्बो - सचे तेसं भिक्खूनं बहू गहितं होति, अप्पं अवसिद्धं तं निट्टत्वा अरज्ञ पविसितब्बं । सचे अप्पं गहितं, बहु अवसिट्ठ, योजनतो परं अगन्त्वा अन्तोयोजनपरिच्छेदे अञ्ञ गणवाचकं उपसङ्कमित्वा" इमे आयस्मा उद्देसादीहि सङ्गहतू" ति वत्तब्बं ।
मानकर भगवान् ने 'रथविनीतप्रतिपद्', 'नालक प्रतिपद्', 'तुवट्टकप्रतिपद्', 'चतुष्प्रत्ययसन्तोषभावनारामता - दीपक महाअरियवंशप्रतिपद् का उपदेश दिया था। तभी तो जन्म देने वाली माता के घर तीन महीने भोजन करते हुए भी " मैं पुत्र हूँ, तुम माता हो' ऐसा नहीं कहा। अहा ! अद्भुत व्यक्ति है!' इस जैसे के लिये माता पिता भी परिबोध नहीं होते। फिर अन्य किसी सेवककुल की तो बात ही क्या ! (२)
लाभ - चीवर आदि चार प्रत्ययों का लाभ । वे किस प्रकार परिबोध होते हैं? पुण्यवान् भिक्षु जहाँ-जहाँ जाता है, लोग वहाँ उसे बहुत से प्रत्यय ( = भोजन आदि) देते हैं। उसके पास उनको आशीर्वाद व धर्मदेशना करते हुए, श्रमण-धर्म का पालन करने के लिये समय नहीं बच पाता । सूर्योदय से रात्रि के प्रथम प्रहर तक उसे लोगों से बातचीत करने से ही अवकाश नहीं मिलता। फिर दूसरे दिन भी प्रातः से ही धन-सम्पत्ति के लोभी पिण्डपातिक (= भिक्षा के इच्छुक) भिक्षु आकर, ' "भन्ते! अमुक उपासक, उपासिका, अमात्य या अमात्य की पुत्री आपके दर्शन के इच्छुक हैं" - इस प्रकार कहते हैं। • वह " आयुष्मन् ! पात्र चीवर उठाओ" कहकर जाने के लिये उद्यत होता है। इस प्रकार सदा व्यग्र बना रहता है । उसी के लिये वे प्रत्यय 'परिबोध' होते हैं। अतः उसे दूसरों (गण) को छोड़कर जहाँ उसे लोग न जानते हों वहाँ अकेले ही विचरण करना चाहिये। इस प्रकार वह लाभ-परिबोध नष्ट होता है।
(३)
गण-सौत्रान्तिक गण ( = सूत्रपिटक के अध्येता छात्रों का समूह) हो या आभिधर्मिक गण जो उसे पढ़ाते हुए या प्रश्नों का उत्तर देते हुए श्रमण धर्म के लिये अवकाश नहीं पाता, उसी के लिये यह गण-परिबोध होता है। अतः उस परिबोध को यों नष्ट करना चाहिये-यदि उन भिक्षुओं ने अधिक भाग सीख लिया हो और कुछ ही अवशिष्ट हो तो उसे पूर्ण कर जङ्गल में चले जाना चाहिये । यदि कुछ ही सीखा हो, अधिकतम शेष रहा हो तो एक योजन से अधिक दूर न जाकर एक योजन के भीतर