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________________ १२९ ३. कम्मट्ठानग्गहणनिद्देस सो तेमासं पि तत्थ पिण्डपातं परिभुञ्जित्वा वस्संवुत्थो "अहं गच्छामी"ति आपुच्छि। अथस्स आतका "स्वे, भन्ते, गच्छथा" ति दुतियदिवसे घरे येव भोजेत्वा तेलनाळिं पूरेत्वा एकं गुळपिण्डं नवहत्थं च साटकं दत्वा "गच्छथ, भन्ते" ति आहंसु । सो अनुमोदनं कत्वा रोहणाभिमुखो पायासि। उपज्झायो पिस्स पवारेत्वा पटिपथं आगच्छन्तो पुब्बे दिट्ठट्ठाने येव तं अद्दस । सो अञतरस्मि रुक्खमूले थेरस्स वत्तं अकासि।अथ नं थेरो पुच्छि-"किं, भद्दमुख, दिट्ठा ते उपासिका" ति? सो "आम, भन्ते" ति सब्बं पवत्तिं आरोचेत्वा तेन तेलन थेरस्स पादे मक्खेत्वा गुळेन पानकं कत्वा तं पि साटकं थेरस्सेव दत्वा थेरं वन्दित्वा "महं, भन्ते, रोहणं येव सप्पायं" ति अगमासि। थेरो पि विहारं आगन्त्वा दुतियदिवसे कोरण्डकगामं पाविसि। उपासिका पि "मय्हं भाता मम पुत्तं गहेत्वा इदानि आगच्छती" ति सदा मग्गं ओलोकयमाना व तिद्वति । सा तं एकमेव आगच्छन्तं दिस्वा"मतो मे मज़े पुत्तो, अयं थेरो एकको व आगच्छती" ति थेरस्स पादमूले निपतित्वा परिदेवमाना रोदि। थेरो"नूनं दहरो अप्पिच्छताय अत्तानं अजानापेत्वा व गतो" ति तं समस्सासेत्वा सब्बं पवत्तिं आरोचेत्वा पत्तत्थविकतो तं साटकं नीहरित्वा दस्सेसि। उपासिका पसीदित्वा पुत्तेन गतदिसाभिमुखा उरेन निपज्जित्वा नमस्समाना आहकहकर स्वीकार किया एवं अच्छे अच्छे खाद्य, भोज्य बनाये । तरुण भी भोजन के समय अपने सम्बन्धियों के घर पहुंचा। किन्तु उसे किसी ने पहचाना नहीं। उसने तीन महीने तक वहीं भोजन करते हुए वर्षाकाल पूर्णकर, "मैं जा रहा हूँ"- इस प्रकार सूचित किया । तब उसके सम्बन्धियों ने "भन्ते, कल जाइयेगा" ऐसा (कहकर) दूसरे दिन घर पर ही भोजन करा, तेल की फोंफी (चोंगी-तेलनाड़ी भर) कर, एक गुड़ का पिण्ड और नौ हाथ वस्त्र देकर "जावें, भन्ते" कहा । उसने आशीर्वाद देकर (=अनुमोदन कर) रोहण के लिये प्रस्थान किया। उसके उपाध्याय ने भी प्रवारणा के बाद लौटकर आते समय पहले वाले स्थान पर ही उसे देखा। उसने एक पेड़ के नीचे स्थविर के प्रति करणीय कृत्य किया। तब स्थविर ने उससे पूछा"सुमुख, क्या तुमने उपासिका को देखा?" उसने "हाँ, भन्ते"-ऐसा कहकर सब समाचार सुनाकर उस तेल से जो उसे मिला था स्थविर के पैरों को मलकर, गुड़ के साथ पानी पिलाकर, वह वस्त्र भी स्थविर को ही देकर "भन्ते, मेरे लिये रोहण ही अनुकूल है" ऐसा कहकर चला गया। स्थविर ने भी विहार मे पहुँचकर दूसरे दिन कोरण्डकग्राम में प्रवेश किया। उपासिका भी यह सोचकर कि "मेरा भाई मेरे पुत्र को लेकर अब आता ही होगा" सदा रास्ता देखती रहती थी। वह उसे एकाकी आते देखकर "सम्भवतः मेरा पुत्र मर गया है, क्योंकि ये स्थविर एकाकी ही आ रहे हैं" ऐसा (सोचकर) स्थविर के चरणो पर गिर कर विलाप करने लगी। स्थविर ने “निश्चय ही तरुण अल्पेच्छता के कारण, स्वयं का परिचय दिये बिना ही, चला गया"ऐसा सोचकर उसे सान्त्वना दी एवं सब वृत्तान्त सुनाकर, उसकी अल्पेच्छता के प्रमाण के रूप में वह वस्त्र थैले से निकाल कर दिखलाया। उपासिका ने प्रसन्न होकर, जिस दिशा की ओर उसका पुत्र गया था उस दिशा में साष्टाङ्ग प्रणाम कर कहा-"प्रतीत होता है कि मेरे पुत्र के समान किसी भिक्षु को ही जीता-जागता उदाहरण
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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