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विसुद्धिमग्ग कुलमानुसकेहि विना धम्मस्सवनाय सामन्तविहारं पि न गच्छति। एकच्चस्स मातापितरो पि पलिबोधा न होन्ति, कोरण्डकविहारवासित्थेरस्स भागिनेय्यदहरभिक्खुनो विय।
सो किर उद्देसत्थं रोहणं अगमासि। थेरभगिनी पि उपासिका सदा थेरं तस्स पवत्तिं पुच्छति। थेरो एकदिवसं 'दहरं आनेस्सामी' ति रोहणाभिमुखो पायासि।।
दहरो पि "चिरं मे इध वुत्थं, उपज्झायं दाति पस्सित्वा उपासिकाय च पवत्तिं बत्वा आगमिस्सामी" ति रोहणतो निक्खमि। ते उभो पि गङ्गातीरे समागच्छिंसु। सो अज्ञतरस्मि रुक्खमूले थेरस्स वत्तं कत्वा "कुहिं यासी" ति पुच्छितो तमत्थं आरोचेसि। थेरो "सुट्ठ ते कतं, उपासिका पि सदा पुच्छति, अहं पि एतदत्थमेव आगतो, गच्छ त्वं, अहं पन इधेव इमं वस्सं वसिस्सामी" ति तं उय्योजेसि। सो वस्सूपनायिकदिवसे येव तं विहारं पत्तो। सेनासनं पिस्स पितरा कारितमेव पत्तं।।
अथस्स पिता दुतियदिवसे आगन्त्वा "कस्स, भन्ते, अम्हाकं सेनासनं पत्तं" ति पुच्छन्तो "आगन्तुकस्स दहरस्सा" तं सुत्वा तं उपसङ्कमित्वा वन्दित्वा आह-"भन्ते, अम्हाकं सेनासने वस्सं उपगतस्स वत्तं अत्थी" ति। "किं, उपासका" ति? "तेमासं अम्हाकं येव घरे भिक्खं गहेत्वा पवारेत्वा गमनकाले आपुच्छितब्बं" ति । सो तुण्हिभावेन अधिवासेसि । उपासको पि घरं गन्त्वा "अम्हाकं आवासे एको आगन्तुको अय्यो उपगतो सकच्चं उपट्ठातब्बो" ति आह । उपासिका "साधू" ति सम्पटिच्छित्वा पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादेसि। दहरो पि भत्तकाले आतिघरं अगमासि। न नं कोचि सञ्जानि।
रहने) के कारण पलिबोध होता है। वह कुल के लोगों के विना धर्मश्रमवण के लिये समीपवर्ती विहार में भी नहीं जा पाता। किसी किसी के लिये माता-पिता भी परिबोध नहीं होते, कोरण्डकविहारवासी स्थविर के भगिनीपत्र तरुण भिक्षु के समान।।
कहते हैं कि वह तरुण भिक्षु अध्ययन (उद्देस) के लिये रोहण (दक्षिणी लङ्का का एक जनपद) गया । स्थविर की बहन उपासिका थी वह स्थविर से उस (अपने पुत्र) का कुशल-समाचार सर्वदा पूछती थी। एक दिन स्थविर ने 'तरुण को ले आऊँ' सोचकर रोहण की ओर प्रस्थान किया। - तरुण भी "यहाँ रहते हुए बहुत दिन हो गये, अब उपाध्याय का दर्शन कर और उपासिका (अपनी माँ) का कुशल-समाचार लेकर लौटूंगा" (ऐसा सोचकर) रोहण से निकला । वे दोनों ही गङ्गा के किनारे मिल गये। उस तरुण भिक्षु ने एक पेड़ के नीचे करणीय कृत्य करके "कहाँ जा रहे हो?" इस तरह पूछे जाने पर उसे अपना उद्देश्य बतलाया । स्थविर ने-"तुमने अच्छा किया, उपासिका भी सदा पूछती रहती है। मैं भी तुम्हें ही लेने आया हूँ। तुम जाओ, मैं इस बार यही वर्षावास करूँगा" ऐसा कहकर उसे विदा कर दिया। वह तरुण भिक्षु भी, जिस दिन से वर्षावास का आरम्भ होने वाला था, ठीक उसी दिन विहार पहुँचा। संयोगवश उसने शयनासन भी वही प्राप्त किया जो उसके पिता ने बनवाया था।
तत्पश्चात दूसरे दिन उसके पिता ने विहार में आकर पछा-"भन्ते. मेरा शयनासन किसे मिला है?" "आगन्तुक तरुण को।" यह सुनकर उसके पास जाकर वन्दना की और कहा-“भन्ते, वर्षावास के लिये मेरे शयनासन को प्राप्त करने वाले के लिये एक व्रत है।" "वह क्या, उपासक?" "तीन महोने मेरे ही घर पर भिक्षा ग्रहण कर प्रवारणा के बाद अपने प्रस्थान का समय सचित करना होता है।" उसने मौन रहकर स्वीकार कर लिया। उपासक ने भी घर जाकर कहा-"हमारे घर पर एक आर्य आने वाले हैं, उनका अच्छी तरह सत्कार करना चाहिये' । उपासिका ने "बहुत अच्छा"