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अन्तरङ्गकथा महाविहारवासीन. देसनानयनिस्सिता।
विद्धिमग्गगन्थस्स अब्भन्तरकथा अयं ॥ विसुद्धिमग्ग की विषय-भूमि से अवगत होने के लिये यह परम आवश्यक है कि हम पहले इस ग्रन्थ के प्रत्येक निर्देश में प्रतिपादित विषय से परिचित हो जाय। अत: अब हम क्रमशः प्रत्येक निर्देश में आगत विषय-वस्तु का संक्षिप्त परिचय देना उचित समझते हैं।
१.शीलनिर्देश एक समय भगवान् श्रावस्ती के जेतवन में विहार कर रहे थे। रात्रि का समय था। किसी देवपुत्र ने भगवान् से आकर पूछा-"भगवन्! यह मनुष्य (जैसे) अन्दर जजालों से घिरा हुआ है, (वैसे ही) बाहर भी जजालों से घिरा हुआ है। अतः हे गौतम! मेरा आप से यही पूछना है कि कौन इन जञ्जालों को काट कर मुक्ति पा सकता है?"
भगवान् ने उत्तर दिया-"देवपुत्र! प्रज्ञावान्, वीर्यवान् तथा पण्डित साधक ही शील में प्रतिष्ठित हो कर इन उपर्युक्त जञ्जालों को काट सकता है।"
इस तरह भगवान् ने अपने संक्षिस उत्तर में संसार से मुक्ति पाने के लिये शील, समाधि, तथा प्रज्ञा की भावना उपदेश किया। जो पुरुष स्वचित्त को शील से सुपरिशुद्ध कर चुका होता है वही समाधि और प्रज्ञा की भावना का अधिकारी होता है, वही इन उपायों द्वारा निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। अर्थात् उक्त तीन उपाय ही निर्वाण के मार्ग है। इन्हें 'विशुद्धि का मार्ग' कह
सकते हैं।
उक्त (शील, समाधि और प्रज्ञा) तीन में से प्रथम शील के विषय में ये सात प्रश्न होते
१. शील क्या है ? २. किस अर्थ में शील है? ३. शील के लक्षण, कार्य, जानने के आकार तथा आसन्न कारण क्या हैं? ४. शील का माहात्म्य क्या है ? ५. शील कितने प्रकार का है? ६. शील का मल क्या है ? ७. और शील की विशुद्धि क्या है?
१. प्रथम प्रश्न का उत्तर है-प्राणि-हिंसा आदि से विरत रहने वाले तथा व्रतादि का आचरण करने वाले साधक के चेतनादि धर्म ही 'शील' कहलाते हैं।
शील के प्रसङ्ग में पटिसम्भिदामग्ग में कहा है-"शील किसे कहते है ? चेतना को, चैतसिक को, संवर को तथा अव्यतिक्रम को 'शील' कहते हैं।" यहाँ चेतना से तात्पर्य है प्राणातिपातादि से विरत रहने वाले तथा व्रताचारसम्पन्न की चेतना। चैतसिक शील कहते है प्राणातिपातादि से विरत रहनेवाले की विरति को। संवर का अर्थ है निवृत्ति। वह पाँच प्रकार का होता है-१. प्रातिमोक्षसंवर, २. स्मृतिसंवर, ३. ज्ञानसंवर, ४. क्षान्तिसंवर, ५. वीर्यसंवर। इस प्रकार यह पाँच प्रकार का संवर तथा पाप से डरने वाले कुलपुत्रों की सम्प्राप्त पापवस्तु से निवृत्ति ही संवरशील है। अव्यतिक्रमशील से तात्पर्य है-ग्रहण किये हुए शील का व्यतिक्रम (उल्लञ्चन) न करना।
२. द्वितीय प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं-शीलन (आधार या संयम, के अर्थ में शील होता है। अर्थात् काय-कर्म आदि का संयम और सुशीलता से एक जैसा बने रहना या ठहरने के लिये आधार की भाँति कुशल धर्मों को धारण करना-इन अर्थों में यहाँ शील शब्द .. प्रयोग है।